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डॉ सुरिन्दर कौर नीलम ने की रेणु झा रेणुका की पहली पुस्तक भावनाओं के रंग की समीक्षा

रांची। प्रख्यात कवयित्री और विद्वान डॉ सुरिंदर नीलम कौर ने लेखिका रेणु झा रेणुका की पहली पुस्तक भावनाओं के रंग की बहुत ही बेहतरीन तरीके से समीक्षा की।
एक संवेदनशील हृदय के कैनवास पर हर पल जीवन के विभिन्न रंग घुलते -मिलते , मकड़जाल की तरह उलझते, कुलबुलाते, छटपटाते हजारों आकृतियां बनाते, मिटाते रहते हैं। एक कवि मन इन रंगों को जब कलम की स्याही बना लेता है तो शब्दों की कूची से सहज ही पन्नों पर ” भावनाओं के रंग” बिखरने लगते हैं। वरिष्ठ साहित्यकार रेणु झा को प्रथम काव्य संग्रह ” भावनाओं के रंग” हेतु असीम बधाइयाँ और शुभकामनाएँ।


रेणु झा एक संवेदनशील और जागरूक कवयित्री हैं। एक अरसे से विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ मंचों पर भी इनके गाए मधुर लोक गीतों की सोंधी महक दर्शकों को प्रभावित करती है।इस काव्य संग्रह में इनकी कलम ने भावनाओं के रंग सजाते हुए उन रंगों की भाषा, अर्थ, स्वभाव और प्रतीकों को सरलता से पाठकों तक पहुंचाया है।इनकी कविताओं में प्यार, मनुहार, इज़हार, तकरार आदि के चटख रंग भी हैं और आंसुओं की स्याही में डूबे हुए कुछ वेदना के रंग भी मिलते हैं।”मनमीत”कविता में वे सिर्फ प्यार की रीत की बात करती हैं । एक अन्य गीत में साजन से कहती हैं
चलो न अपने गांव
बैठेंगे पीपल छांव
देखेंगे नदिया धार…

तो दूसरी ओर “धरती की पुकार”कविता में उन्हें देश,समाज में फैल रहे स्याह रंगों की भी चिंता उद्वेलित करती है।वे राम जी से गुहार लगाती हैं।
हे राम! अवतरित हो जाओ
मेरे बच्चे सब बोझ बने
मानवता छोड़ गिद्ध,भेड़िए हो गये
सभ्यता संस्कृति की धज्जियां उड़ रहीं…

रंगो का कारोबार, निर्माण और आदान – प्रदान तो प्रकृति के हाथों में है। प्रकृति हर मौसम में विभिन्न रंगों से संसार को तरंगित करती रहती है।इन रंगों के मायने और प्रतीक जीवन में ऊर्जा भर इसे गतिशील रखते हैं।जब हमारे चारों ओर रंग बिरंगे फूल खिलने लगते हैं, मदमस्त हवाएं चलने लगती हैं तो हम कहते हैं कि कुदरत ने वासंती रंग छिटक दिए हैं। परंतु जब हम यह गीत सुनते या गुनगुनाते हैं –
मेरा रंग दे बसंती चोला मांए रंग दे…
तो यही वासंती रंग शौर्य, पराक्रम और देशभक्ति के प्रतीक बन जाते हैं। कहने का मतलब कि रेणु झा ने अपनी कविताओं में प्रकृति, पर्यावरण, मौसम, स्वच्छता आदि की चिंता करते हुए उनके रंगों को सुरक्षित रखने के संदेश भी दिए हैं और अपनी उर्जावान कलम तथा ओजपूर्ण शब्दों से देश के वीर शहीदों को सलाम करते हुए देशप्रेम के जज्बे को भी कायम रखा है।
धरती की पुकार, प्रकृति और विकास, स्वच्छता, पर्यावरण, जंगल, पहाड़ आदि कविताओं में इनके प्रकृति प्रेम के रंग बखूबी दिखाई देते हैं।
रंग तो रिश्तों में भी होते हैं। परंतु जब ये रंग अपनी आभा खोने लगें तो इस दर्द को एक कवयित्री से ज्यादा कौन समझ सकता है जो महिला होने के नाते अनेक रिश्तों में बंधी उन्हें संभालती रहती है। रेणु जी ने दरकते रिश्तों का दर्द गहराई से महसूस कर कविताओं में उकेरा है।”वृद्धाश्रम” कविता में एक बानगी देखें
टकटकी लगाए देखती रही
उस चौखट को मैं
जहां से गया अभी
बेटा मुझे छोड़कर
मेरे गुरूर को चूर कर गया
आज वृद्धाश्रम में छोड़ दिया।
इसी कड़ी में मेरी व्यथा, तलाक, दर्द अपनो का दहेज, रिश्ते, नम्रता इत्यादि अनेक कविताएं हैं जो पाठकों को सहज ही छू लेती हैं।
एक रचनाकार की खूबी होनी चाहिए कि वह जीवन के हर पक्ष को अपनी भावनाओं के रंग दे। रेणु झा इसमें सफल हुई हैं। उनकी रचनाओं में गांव की सोंधी महक है, पापा जैसी बनना चाहती हैं, सहेजी चिट्ठियां हैं, मां है ,बेटी है, देश, समाज, मजदूर, चांद,तवायफ, बचपन, और भी बहुत सारे रंग हैं। मोदी पर उनकी कविता बेहतरीन है। एक विशेषता है कि इनकी कविताओं में सिर्फ समस्यायें नहीं है बल्कि उनके समाधान के उपाय भी हैं, जो एक रचनाकार का धर्म होता है। रेणु झा की रचनाएं प्रेरक, साकारात्मक और आशावादी दृष्टिकोण लिए समाज को दिशा प्रदान करती हैं।
रेणु झा का पहला काव्य संग्रह है। कुछ अशुद्धियों की गुंजाइश तो रहती है। आशा है कि भविष्य में इनकी लेखनी और भी सशक्त और परिपक्व होगी। पाठक इस संग्रह को पसन्द करेंगे इस उम्मीद के साथ रेणु झा को ढेरों बधाइयां और शुभकामनाएं।

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