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राजस्थान में सचिन पायलट और अशोक गहलोत की लड़ाई बिहार में श्री कृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिंह के बीच रार की तरह है

राजेश कुमार झा नई दिल्ली

सचिन पायलट बनाम अशोक गहलोत

: आज यानी 31 मई को सचिन पायलट के अल्टीमेटम का आखिरी दिन है। लेकिन सियासत ने ऐसी करवट ली कि अल्टिमेटम से पहले मांगें पूरी नहीं हुईं लेकिन सुलह थोप दी गई। राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत कह रहे कि पार्टी में एक ही साथ रहना है तो साथ रहेंगे। मतलब क्या है? समझना मुश्किल नहीं है। दोनों के बीच रस्साकशी चरम पर है और चुनाव सिर पर है। कांग्रेस के भीतर ऐसी कहानियों का पूरा इतिहास है। ऐसी ही रस्साकशी बिहार में खूब चली जब कांग्रेस का रसूख था। अब तो खैर लालू से पानी मांग कर जिंदा है। बिहार केसरी श्रीकृष्ण सिंह और उनके डिप्टी बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिंह की कहानी सचिन पायलट-अशोक गहलोत से मेल खाती है।बिहार केसरी बनाम बिहार विभूति
राजनीति और समाज में अगुआ रहे कायस्थों को बिहार में भूमिहारों से चुनौती मिली। आजादी से पहले और उसके बाद जातीय वर्चस्व के लिए गोलबंदी को हथियार बनाया गया। कायस्थों ने भूमिहारों से लोहा लेने के लिए राजपूतों से हाथ मिलाया। लोहा लेने का मतलब जंग का मैदान नहीं बल्कि नौकरियों से लेकर विधानसभा में वर्चस्व से है। धीरे-धीरे वर्चस्व की लड़ाई भूमिहारों और राजपूतों के बीच शिफ्ट हो गई। बिहार केसरी श्रीकृष्ण सिंह भूमिहारों के नेता थे और अनुग्रह नारायण सिंह राजपूतों के। श्रीकृष्ण सिंह श्रीबाबू के नाम से मशहूर हुए। वो मुंगेर के रहने वाले थे और अनुग्रह बाबू गया के। 1935 के गवर्नमेंट एक्ट ऑफ इंडिया के बाद बिहार में कांग्रेस की सरकार बनी। श्री कृष्ण सिंह सीएम और अनुग्रह बाबू डिप्टी सीएम बने। अंग्रेजों के जाने से पहले बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी में प्रभुत्व की जंग इस कदर तेज हुई कि 1942 में मौलाना अबुल कलाम आजाद को बीच-बचाव के लिए पटना भेजना पड़ा। राजेंद्र प्रसाद और आजाद जैसे नेताओं के समझाने के बावजूद भी श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह बाबू का गुट भिड़ता रहा।राम चरित्र सिन्हा, सारंगधर सिन्हा, श्यामा प्रसाद सिंह, सरदार हरिहर सिंह और देवब्रत शास्त्री ने श्रीबाबू की तरफ से चिट्ठी लिखी और आरोप लगाया कि कांग्रेस कमेटी में अनुग्रह नारायण सिंह के लोगों ने आतंक फैलाया हुआ है। राम चरित्र सिन्हा और श्यामा प्रसाद ने तो वर्किंग कमेटी से इस्तीफा तक दे दिया। जब 1952 में श्री बाबू बिहार के पहले सीएम बने तो उनके गैर भूमिहार समर्थकों में मंत्री बनने की उम्मीद जगी। इसमें एक नाम थे राजपूत नेता सारंगधर सिंह। लेकिन लिस्ट में उनका नाम गायब था। उधर श्री बाबू के रिश्तेदार महेश प्रसाद सिंह कैबिनेट में शामिल हो गए।

अंग्रेजों के जाने से पहले बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी में प्रभुत्व की जंग इस कदर तेज हुई कि 1942 में मौलाना अबुल कलाम आजाद को बीच-बचाव के लिए पटना भेजना पड़ा। राजेंद्र प्रसाद और आजाद जैसे नेताओं के समझाने के बावजूद भी श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह बाबू का गुट भिड़ता रहा

नीचा दिखाने की होड़
इसके बाद कायस्थ महारथी और खुद सीएम के दावेदार कृष्ण बल्लभ सहाय ने नाक भौं सिकोड़ लिया। महेश सिन्हा और सहाय गुटों में एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ मच गई। लेकिन सिन्हा ने सहाय को चढ़ने नहीं दिया। 1957 के लोकसभा चुनाव में सहाय गुट को बिल्कुल नजरअंदाज कर दिया गया। एक गुट ने जन कांग्रेस बना लिया। बिहार कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के लिए पहली बार जोरदार टक्कर हुई। केबी सहाय मजबूती से अनुग्रह नारायण के साथ रहे लेकिन अपने दोस्त को जीत नहीं दिला सके। 1957 में ही अनुग्रह बाबू का निधन हो गया। इसी के साथ राजपूत कैंप में निराशा छा गई लेकिन जल्दी ही वे बिनोदानंद झा के पीछे लग गए जिन्होंने श्री बाबू के खिलाफ मोर्चा संभाला था। 1961 में श्री बाबू का भी निधन हो गया। उधर बिनोदानंद झा ने दलितों, राजपूतों और मुसलमानों का इंद्रधनुषी समीकरण बनाया जिसके आगे महेश सिन्हा नहीं टिक सके। बिनोदानंद झा बिहार के दूसरे सीएम बने। लेकिन सहाय कैंप ने मौका देख कर चौका मारा और झा गुट को शिकस्त देने के लिए भूमिहारों, राजपूतों और ओबीसी नेताओं का समीकरण बना लिया। अध्यक्ष चुनाव में झा ने तुरूप का इक्का फेंका और कुर्मी जाति के बीरचंद पटेल को आगे कर दिया। लेकिन वो हार गए। सहाय का सीएम बनने का सपना पूरा हो गया। फिर कृष्ण बल्लभ सहाय ने ओबीसी में भविष्य का साथी देखा और बिहार की राजनीति में राम लखन सिंह यादव का अभ्युदय हुआ। सहाय ने उन्हें अपने कैबिनेट में पीडब्ल्यूडी जैसा अहम मंत्रालय दे दिया। 1967 के चुनाव में श्री बाबू के बेटे शिवनंदन सिन्हा और महेश सिन्हा एक साथ हो गए। बिनोदानंद झा एक तरफ हो गए। आपसी लड़ाई से तंग आकर रामगढ़ के राजा और महामाया प्रसाद ने पार्टी छोड़ कर जन क्रांति दल बना लिया।

बिहार केसरी श्रीकृष्ण सिंह पहले सीएम थे
पाला बदल
एक बात साफ है कि कांग्रेस के भीतर गुटबंदी और वर्चस्व की लड़ाई का कोई सैद्धांतिक बुनियाद नहीं रहा। जातीय समीकरण की भूमिका हमेशा केंद्र में रही। जातीय गुटबंदी का फायदा प्रोफेशनल नेताओं ने खूब उठाया। एक रिसर्च के मुताबिक 1950 से 1970 के बीच बिहार कांग्रेस के 60 प्रमुख नेताओं में 30 ने कम से कम दो बार पाला बदला। दस से ज्यादा नेताओं ने दो बार से ज्यादा पाला बदला।

कांग्रेस का सियासी संकट अभी टला नहीं

बिहार का पार्ट-2 है राजस्थान
जिस तरह राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट लड़ रहे हैं, उस इतिहास की एक बानगी है ये। दस जनपथ से सिपहसालारों का राज्यों की राजधानियों में जाना, समझाना, हाईकमान का फैसला थोपना और बात न बने तो वापस लौट जाना। यही अजय माकन के साथ भी हुआ। वो जयपुर जाते हैं। समझाइश करते हैं। लौटते हैं। फिर दोनों दिल्ली बुलाए जाते हैं। सचिन पायलट अल्टिमेटम देत हैं। अशोक गहलोत को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने की तैयारी होती है तो वो सीएम पद पर भी रहना चाहते हैं। जब 25 सितंबर, 2022 को अजय माकन सत्ता परिवर्तन कराने जयपुर जाते हैं तब गहलोत कैंप धौंस दिखाता है। यही आज से 72 साल पहले बिहार में होता था। जब विनोदानंद झा सीएम बने तो मंत्री अपने हिसाब से बनाना चाहते थे। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी से साफ कह दिया कि अगर नाम उन पर थोपे गए तो उनके लिए काम करना मुश्किल हो जाएगा। महेश सिन्हा और झा कैंप ने कैबिनेट में अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाने के लिए शक्ति प्रदर्शन शुरू कर दिया। लैंडलाइन वाले युग में दिल्ली दूर थी। 18 फरवरी, 1961 के दिन झा ने शपथ ली तो सिन्हा गुट के सारे मंत्री गायब थे। दिल्ली में कई बैठकों के बाद झा कैंप के मंत्रियों ने तीन अप्रैल को शपथ ली।

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