राँची । मोरहाबादी मैदान में चले रहे पर्यावरण मेले के आठवें दिन ‘‘रिसाईक्लिंग एंड सस्टेनबिलिटी’’ विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। इस परिचर्चा में रिसाइकिलिंग एंड इन्वायरमेंट इंडस्ट्री एसोसिएशन ऑफ इंडिया के सचिव सह महानिदेशक श्री राजेंद्र पी. शर्मा ने अपने व्याख्यान में कहा कि विकास के फेर में हम अपने मूल सिद्धान्तों को भूल गये है। अगर हम लोग अपनी लाइफ स्टाइल को नहीं बदलेंगे तो आने वाले दिनों में दिक्कतें ज्यादा बढ़ जाएंगी। उन्होंने कहा कि हमें अपनी जरूरतों को कम करना होगा। उन्होंने थ्री आर का फार्मूला दिया- रिड्यूस, रियूज और रिसाईकल। राजेंद्र पी शर्मा ने कहा कि प्रकृति ने हमें जो भी संसाधन दिये हैं, उन सभी की एक सीमा है। एक सीमा के बाद वो खत्म हो जाएंगे। फिर क्या बचेगा हमारे पास, इस पर अब सोचने का वक्त आ गया है।
उन्होंने कहा कि कूड़ा-कचरा के ढे़र से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है जो वायुमंडल के तापमान को बढ़ाता है। आज से 30-40 साल पहले जो जिंदगी हम लोग जीते थे, उस जिंदगी को ही फिर से जीना होगा। पुराने जीवन पद्धति को अपनाना ही होगा। तय आपको करना है कि आप इसे कब और कैसे करेंगे। उन्होंने रिडयूस का उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे पहले या अभी भी आप गांवों में चले जाएं। उन गांवों में आपको डंप नहीं मिलेगा। आप यह पूछ सकते हैं कि डंप क्यों नहीं मिलता। इसका सीधा सा जवाब हैः गांव के लोग डंप की स्थिति पैदा ही नहीं होने देते। अव्वल तो कुछ बचता नहीं। अगर बच भी गया तो उसे वे अपने खेत में इस्तेमाल कर लेते हैं। नतीजा यह निकलता है कि वहां न तो कोई गंभीर बीमारी फैलती है, न ही किसी चीज का मिसयूज होता है। हमें अपने जीवन को फिर से रीसेट करना होगा।
श्री शर्मा ने रियूज का उदाहरण देते हुए कहा कि मान लें, आपने एक शर्ट खरीदी। उस शर्ट को आपने साल-दो साल पहना। फिर उसका कलर उतर गया या फैशन में परिवर्ततन हो गया तो आप उसे उतार देते हैं। अंततः दीपावली या किसी अन्य मौके पर आप उस शर्ट को लैंडफील्ड में ही फेंक आते हैं। आप किसी भी लैंडफील्ड में चले जाएं, 25 प्रतिशत आपको कपड़े ही नजर आएंगे। ये संसाधन को नष्ट करने के समान ही है। इसका दूसरा इस्तेमाल रीसाइकिल करके हो सकता है। आप पहले के दौर को याद करें। तब माताएं-बहनें कपड़ों को फेंकती नहीं थी। वो कपड़ों को जमा करती थीं। कपड़े जब ज्यादा हो जाते थे तो उसे बर्तन वालों को दे देती थीं। कपड़ों के एवज में दो-तीन स्टील के या पीतल या कांसे के बर्तन मिल जाते थे। यानी, उस कपड़े को लैंडफील्ड में नहीं फेंका गया बल्कि उसका इस्तेमाल बदल कर दूसरा सामान ले लिया गया। अब जिसे आपने कपड़े दिये हैं, वो उसे मार्केट में सेकेंड हैंड में बेच देगा और जो गरीब आबादी है, वो उसे नए सिरे से इस्तेमाल करेगी। यही चेन है। आपने शर्ट को फेंका नहीं और उसी शर्ट के बदले में आपको बर्तन भी मिल गए तथा आपने एक रोजगार भी पैदा कर दिया, एक तीसरे शख्स ने उसे दो पैसे कम देकर खरीद भी लिया। यही चेन है। इसे एडॉप्ट करना ही होगा।
रिसाईक्लिंग के संदर्भ में उन्होंने बताया कि हमें इस बात को समझना होगा कि कोई भी चीज बेकार नहीं है। उदाहरण के लिए आप मोबाइल को ले लें। एक मोबाइल फोन आपने दो-तीन साल यूज किया। फिर आपने नई ले ली। अब आप पहले वाले हैंडसेट का क्या करेंगे, यह आपके ऊपर निर्भर करता है। अगर आपको पता हो कि आपके मोबाइल हैंडसेट में लोहा, पीतल, तांबा, अल्यूमिनियम, चांदी, सोना (परावर्तित रूप में) मौजूद है तो आप उसे कहां रीसाइकिल करेंगे। आपके पास मशीन नहीं है तो आप ये करें कि उसे किसी बढ़िया दुकानदार को दे दें। खास कर जो बड़ी कंपनियों के दुकान हैं, उन्हें ही दें। वो आपको मोबाइल हैंडसेट का उचित मूल्य भी देंगे और उसे रीसाइकिल करने के लिए भेज देंगे। इससे फायदा यह होगा कि मोबाइल में जो नुकसानदेह पदार्थ हैं, बैटरी है, केमिकल है, अन्य पदार्थ हैं, उनका समुचित इस्तेमाल हो जाएगा। इससे कम से कम पर्यावरण को कोई खतरा नहीं होगा। इसलिए यह हर आदमी को समझना होगा कि अगर रिसाइकिलिंग के सिस्टम को आज नहीं समझा गया तो आने वाले वक्त में कई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। मानव जीवन पर खतरा यूं ही मंडरा रहा है, यह और बढ़ जाएगा। आम जनमानस के बीच रिड्यूस, रियूज और रिसाईक्लिंग के बारे में जागरूकता फैलाने की जरूरत है, उन्हंे प्रेरित करने की आवश्यकता है।
सस्टेनिबिलिटी के बारे में उन्होंने विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि सस्टेनिबिलिटी के तीन भाग होते है। पहला पर्यावरण दूसरा आर्थिक और तीसरा समाज। जब हम विकास की बात करते है तो हमें पर्यावरण, समाज और आर्थिक पहलुओं को ध्यान में रखना होगा। पहले एक टन लोहा बनाने के लिए 10 क्यूबिक मीटर पानी का उपयोग किया जाता था। पर थ्री आर का प्रयोग कर आज मात्र 3.5 क्यूबिक मीटर पानी में ही एक टन लोहा बनाने में उपयोग हो जाता है। वहीं पूर्व में 5 से 6 टन लौह अयस्क से एक टन लोहा निकाला जाता था। शेष अवशेष को प्लांट के आस-पास के किनारों पर डंप कर दिया जाता था। जमशेदपुर के अधिकांश भाग इसी कचरे के ढे़र पर बसा है। इसके बाद औद्योगिक कंपनियों ने इस पर ध्यान देना शुरू किया और अब स्थिति यह है आज 3.5 टन मैटेरियल से एक टन लोहा निकाला जाता है, जो एक सुखद स्थिति है। किसी भी उद्योग को यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज हमारा पड़ोसी है और पड़ोसी के हाल का ख्याल दूसरे पड़ोसी को रखना चाहिए। उसे यह भी ध्यान रखना होता है कि उसके कारण उसके पड़ोसी को कोई परेशानी न हो।
परिचर्चा के मुख्य अतिथि एवं बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति, डॉ. (प्रो.) ओ.एन. सिंह ने कहा कि हरित क्रांति के काफी फायदे हुए थे, भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया था। मगर इसका दूरगामी प्रभाव भी पड़ा। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में आज पानी का स्तर काफी नीचे चला गया है, डीप बोरिंग फेल हो गये है। फर्टिलाईजर, यूरिया एवं पेस्टिसाईड के अत्यधिक प्रयोग से वहां के खेत लगभग बंजर हो गये है। हमें ऐसे फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देना होगा, जिनमें पानी का उपयोग न्यूनतम होता है। पहले एक किलोग्राम धान के उत्पादन में लगभग चार हजार लीटर पानी की खपत होती है, कृषि क्षेत्र में निरंतर अनुसंधान के बाद आज यह आँकड़ा एक हजार लीटर प्रति किलोग्राम पर आ गया है। पजंाब, हरियाणा में जो पराली जलता है तो उसका धुआँ दिल्ली तक पहंुचकर वहां के लोगों के स्वास्थ्य पर असर डालता है। हमें अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा। झारखण्ड में और राज्यों की तुलना में पर्यावरण और प्रकृति की स्थिति काफी बेहतर है, हमें इसे यथावत् रखने की आवश्यकता है। आज हमें वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम को अनिवार्य करना होगा। पानी का उपयोग न्यूनतम करना होगा, उसकी बर्बादी को हर हाल में रोकना होगा तभी हमारी पृथ्वी बच पायेगी। हम अपने आनेवाली पीढ़ी को विरासत में क्या देकर जायेंगे, इस पर हमें गंभीरता से सोचना होगा।
मेला में प्रवेश निःशुल्क होने से मेला में आज काफी भीड़ एवं चहल-पहल रहा। कस्तूरबा खादी ग्रामोद्योग संस्थान, मुरी, रांची, खादी ग्रामोद्योग संस्थान, धनबाद, आदिम जाति समग्र विकास परिषद, राँची, खादी ग्रामोद्योग संस्थान, बिष्टुपुर एवं झारखंड राज्य खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड जैसे नामचीन खादी स्टॉल लगाये गये है, जिनमें खरीदारों की काफी भीड़ रही। कुटिर उद्योगों में मुख्य रूप से त्रिलोक जैन-चूरन वाला सहिल राजा, चूरन वाला अपने प्राकृतिक एवं स्वास्थ्यवर्द्धक उत्पाद बेच रहे है। इसके साथ ही घरेलू सामाग्रियों में सहारनपुर का फर्नीचर, किशनगंज बिहार का जयपुरी बेडशीट, मुज्जफरपुर, उत्तरप्रदेश का लकड़ी का खिलौना, बनारसी साड़ी, सुट, पश्चिम बंगाल का कांथा वर्क हैंडलुम साड़ी तथा खेसरा बेडशीट, इटावा, उत्तरप्रदेश का जयपुरी ज्वेलरी, मध्यप्रदेश का झांसी बेडशीट, हैदराबाद का तेलांगना साड़ी तथा आंध्रप्रदेश का महाराष्ट्रा साड़ी, कोलकाता से कोलकाता कांथा साड़ी, राजस्थान का बंधनी डेªस, भोपाल का आयुर्वेदिक चुरन, बोकारो का चिकअप इनर्जी ड्रिंक्स, पंजाब का जयपुरी जुति, लखनऊ का मेरठ कुर्ती, जेएसपीएलएस का रेशम साड़ी आदि भी अलग-अलग प्रतिशत में छूट के साथ मेले में बिक्री के लिए उपलब्ध है, जिनमें लोग खरीदारी करते नजर आये।
परिचर्चा के उपरांत संध्या 6.30 बजे से कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ। काव्य का शुभारम्भ खुशबू शर्मा ने ‘अपने मुझको भी दे दो माँ सूरों सुरों की रानी, वंदना जब भी तेरी सूरदास करते थे, आसमानों की …………………….. से तान को तानसेन जब तेरी सुर देते थे, बुझते दिये भी जले दिन में, माँ सुरो की रानी से किया’’। श्री पदम अलबेला, श्री अखिलेश द्विवेदी एवं सुश्री खुशबू शर्मा एवं राँची की कवियत्री श्रीमती शैल सिंह ने अपने काव्य रचनाओं से लोगों को गंभीर विषयों पर हास्य का तड़का लगाकर लोगों को हँसाया।