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गुरु-शिष्य परम्परा का आधार सांसारिक ज्ञान से होता है शुरू

जमशेदपुर: गुरू पूर्णिमा के अवसर पर आनन्द मार्ग प्रचारक संघ के जनरल सेक्रेटरी आचार्य चित्रस्वरूपानंद अवधूत ने कहा कि आनन्द मार्ग दर्शन में कहा गया ब्रह्मैव गुरुरेकः नापरः एकमात्र ब्रह्म ही गुरु हैं वे ही विभिन्न आधार के माध्यम से जीव को मुक्ति पथ का सन्धान लगा देते हैं। ब्रह्म को छोड़कर कोई भी गुरू पदवाच्य नहीं है। गुरू-शिष्य परम्परा को ‘परम्पराप्राप्तम योग’ कहते है। गुरु-शिष्य परम्परा का आधार सांसारिक ज्ञान से शुरू होता है,परन्तु इसका चरमोत्कर्ष आध्यात्मिक शाश्वत आनंद की प्राप्ति है,जिसे ईश्वर -प्राप्ति व मोक्ष प्राप्ति भी कहा जाता है। बड़े भाग्य से प्राप्त मानव जीवन का यही अंतिम व सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए। ”मान्यता रही है कि ज्ञान मात्र पुस्तकों से ही नहीं प्राप्त होता है वरन् ज्ञान”का पहला केन्द्र परिवार होता है। बालक की पहला
शिक्षक उसके माता ,पिता बालक का दूसरा  शिक्षक आचार्य  एवं तदुपरान्त अन्त में सद्गुरू  के पास पहुँचता है। प्राचीन  शिक्षा के दो प्रमुख स्तम्भ रहें हैं गुरू और शिष्य गुरू तथा शिष्य की विशेषताओं तथा उनके परस्पर 
संबंधों को जाने बिना शिक्षा पद्धति को ठीक प्रकार से नहीं जाना  जा सकता है। गुरू शब्द को व्याख्यायित करते हुए वेद में कहा गया है। गृणाति उपदिशति वेदादि शास्त्राणि इति ”अर्थात जो वेद शास्त्रों को स्वयं ग्रहण   करते हैं तथा ( शिष्यों को )  इनका   अनुदेश करते हैं  ‘ गुरू ’ कहलाते  है। तंत्र के अनुसार गुरू में भगवत्ता का होना अनिवार्य है। भग+ मतुप्
भगवानः- उनको कहेंगे जिनमें छः प्रकार के भग अर्थात दिव्य शक्ति हो- ऐश्वर्य, वीर्य या प्रताप, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य।
ऐश्वर्य ऐश्वर्य अर्थात ऐसी शक्ति या विभूति। यह आठ प्रकार की सिद्धियां होती है यथा- अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, वशित्व, ईशित्व तथा अन्तर्यामित्व।
वीर्य या प्रताप- वीर्य का अर्थ है जो स्वयं को प्रतिष्ठित करते हैं। जिनसे अधार्मिक भयग्रस्त रहते हैं और धार्मिक सभी प्रकार की सहायता पाते हैं।
यश- इस दिव्य शक्ति के प्रभाव से समाज का ध्रुवीकरण हो जाता है धार्मिक और अधार्मिक के रूप में। श्री- श्री= श+र+ई = रजोगुण शक्ति के साथ कर्मेषणा का समन्वय या आकर्षण।
ज्ञान- ज्ञान का अर्थ है आत्मज्ञान या परा ज्ञान। गुरू परम पुरुष हैं ज्ञानमूर्ति।
वैराग्य- वैराग्य का अर्थ हुआ जागतिक विषय में अनासक्ति- न राग न द्वेष। सद्गुरु के गुणों की चर्चा करते हुए शैव तंत्र यह मत व्यक्त करता है कि गुरू ही ब्रह्म हैं।
गुरू होगें – शान्त :- मन पर पूर्ण नियंत्रण , दान्त:-इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण ,  कुलीनः-स्वयं की कुलकुंडलिनी जाग्रत है और समान्य जन के कुल कुंडलिनी को जागृत करने का सामर्थ्य है , विनीत , शुद्धवेश धारण   करने वाला , शुद्धचारी:-स्वच्छ आचरण   वाला ,  सुप्रतिष्ठित ,  शुची  ( पवित्र ) ,  सुबुद्धिमान , आश्रमी:-गृहस्थ  , ध्याननिष्ठ , तंत्र  मंत्र विशारद , निग्रह :- कठोर शासन द्वारा साधक को शुभ पथ पर चलाने वाले, अनुग्रहृ- निर्बल पर करूणा की बरसात करने  की क्षमता वालेसक्षम व्यक्ति ही सद्गुरू  कहलाते हैं । जैसे भगवान शिव, प्रभु कृष्ण एवं तारक ब्रह्म भगवान श्री श्री आनन्दमूर्त्ति जी।

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