सैंकड़ों पत्रकार संगठन, फिर भी सबसे असुरक्षित हैं भारत में पत्रकार
झारखंड से पत्रकार रक्षा के लिए उठी आवाज़, देश भर के पत्रकारों के लिए बनी उम्मीद की किरण
जमशेदपुर।
देश भर में पत्रकार हितों की रक्षा के नाम पर सैंकड़ों पत्रकार संगठन हैं। सभी के दावे यही होते हैं कि वे पत्रकारों के एक मात्र सच्चे हितैषी है। लेकिन जब उन संगठनों की सच्चाई धरातल पर आप तलाश करते हैं तो जो हकीकत सामने आती है वह उन संगठनों की पोल खोलती है। पिछले कुछ वर्षो में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में हुई पत्रकारों की हत्या के बाद उनमें से किसी एक भी संगठन के नेतृत्वकर्ता हत्या के उपरांत पत्रकारों के परिजनो से मिलने तक का समय नहीं निकाल पाए। जिन पत्रकारों की हत्याएं की गईं उनमें से किसी एक के लिए न्यायीक लड़ाई नहीं लड़ी। दिवंगत पत्रकारों के परिजनों के समक्ष जीविका सबसे बड़ी समस्या होती है, किसी पत्रकार संगठन ने कभी पलट कर भी उस ओर नहीं झांका। पत्रकार यूनियन से अधिकांश श्रमजीवी
पत्रकारों की दूरी इन्हीं कारणों से रही है। देश भर के पत्रकार यूनियन के लिए सैर वा तफरीह के लिए कार्यक्रम का आयोजन कर अपने दायत्व से मुक्त हो जाते हैं।
झारखंड के पत्रकारों ने इस पीड़ा को बहुत करीब से महसूस किया है। पिछले 8 वर्षों में 5 पत्रकारों की हत्या के उपरान्त देश में वर्षो से स्थापित करोड़ों की अकूत संपत्ति वाले उन संगठनो के पद पर विराजमान बड़े मठाधीशों को ठेंगा दिखाते हुए पत्रकार हितों की रक्षा के लिए वर्ष 2012- 2013 से अपनी अलग राह एख्त्यार की। इस दौरान राष्ट्रीय स्तर के संगठनो के रवैए (पांच सितारा होटलों का खर्च और पैसों की वसूली)से खिन्न होकर झारखंड से ही राष्ट्रीय संगठन का गठन करने का निर्णय लिया। झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार शाहनवाज़ हसन, देवेंद्र सिंह और चंदन मिश्र ने राष्ट्रीय संगठन के गठन का निर्णय लिया जिसका भरपूर समर्थन विष्णु शंकर उपाध्याय, अनुपम शशांक और अमरकांत ने किया।
एक ओर दिवंग्त पत्रकार चंदन तिवारी की हत्या का मुकदमा लड़ने के लिए उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता को झारखंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन के पत्रकार साथी अपनी जेब से भुगतान कर रहे थे, वहीं अन्य राष्ट्रीय संगठन के पदाधिकारी निंदा प्रस्ताव पारित कर अपने दायित्व से मुक्त समझ रहे थे। झारखंड से बने राष्ट्रीय स्तर के पत्रकार संगठन से देश भर के 19 राज्य जुड़ चुके हैं। यह संगठन देश का एक मात्र संगठन है जहां यह नियम बनाया गया कि कोई भी पत्रकार संगठन के अध्यक्ष पद पर 4 वर्षो से अधिक पद पर नहीं रह सकता है। इस पत्रकार संगठन की पहल पर गंभीर रूप से बीमार आर्थिक तंगी से जूझ रहे लगभग 2 दर्जन से अधिक पत्रकारों को पचास हजार रुपए की सहायता प्रदान की गई, जब कि किडनी, हार्ट और कैंसर पीड़ित पत्रकार को 5 लाख रुपए की सहायता प्रदान की गई। कोरोनाकाल में सैंकड़ों पत्रकारों का ईलाज एवं आर्थिक रूप से कमज़ोर पत्रकारों के लिए राशन तक की व्यवस्था की गई।
पत्रकारों के लिए सर्वे करने वाली संस्था सीपीजे ने प्रेस की स्वतंत्रता और मीडिया पर हमलों पर अपने वार्षिक सर्वेक्षण में कहा है कि 1 दिसंबर 2021 तक भारत में चार पत्रकारों की उनके काम के लिए हत्या कर दी गई थी, जबकि पांचवें की “खतरनाक असाइनमेंट” पर मृत्यु हो गई थी। इसमें कहा गया है कि 1 दिसंबर 2021 तक सात भारतीय मीडियाकर्मी अपनी रिपोर्टिंग के परिणामस्वरूप सलाखों के पीछे थे।
दुनिया भर में जेल में पत्रकारों की कुल संख्या भी कथित तौर पर “रिकॉर्ड ऊंचाई” पर पहुंच गई है, 1 दिसंबर 2021 तक 293 जेल में थे।
चार भारतीय पत्रकारों को उनके खबर बनाने के लिए हत्या की “पुष्टि” की गई है, वे हैं नवंबर में अविनाश झा (बीएनएन न्यूज), अगस्त में चेन्नकेशवलु (ईवी5) और मनीष सिंह (सुदर्शन टीवी), और जून में सुलभ श्रीवास्तव (एबीपी न्यूज)।
एक पत्रकार, साधना टीवी प्लस के रमन कश्यप , की अक्टूबर में लखीमपुर खीरी हिंसा के दौरान मृत्यु हो गई।
इन सबके बावजूद पत्रकार संगठनो के रवैए में कोई बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है। उनकी लड़ाई पद पर बने रहने के लिए है तो कहीं प्रेस क्लब और मान्यता प्राप्त समिति के पदाधिकारी बनकर पत्रकारों की पीड़ा भूलकर चैन की बांसूरी बजा रहे हैं।