सुबह की पहली किरण से ही बुनता
आँखो में ख़्वाब सतरंगी प्रेम।
आँसू बन क़र बहता तो
कभी हँसने की वजह बनता प्रेम।।
कैसा ये है प्रेम?
भरी महफ़िल में करदे अकेला
तो अकेले में मुस्कुराता प्रेम।
संग-संग परछाई सा होता कभी तो
ख़्यालों से भी दूर नही होता प्रेम।।
कैसा ये है प्रेम?
अल्फ़ाज़ों में बरसता कभी तो
खामोशी में झलकता प्रेम।
इशारों में दिखता कभी तो
सुने मन में रौनकी भरता प्रेम।।
कैसा ये है प्रेम?
यादों में रच-बस जाता कभी तो
अपने में रमा लेता प्रेम।
पास होकर दूर होता कभी
दूर होकर खुद में समा लेता प्रेम।।
कैसा ये है प्रेम?
नाराज़गी बन आँखो में उतरता
कभी ख़ामोश हो सब सहता प्रेम।
शिकायतो को मन में दफ़ना
इश्क़-इबादत में झुकता प्रेम॥
सचमुच अनोखा है ये प्रेम?
सुनीता अग्रवाल
राँची(झारखंड)