पर्यावरण मेले के पाँचवे दिन ‘‘पारम्परिक व्यवहार एवं वैश्विक पर्यावरणीय प्रशासन’’ विषय पर परिचर्चा
राँची । मोरहाबादी मैदान में चले रहे पर्यावरण मेले के पाँचवे दिन ‘‘पारम्परिक व्यवहार एवं वैश्विक पर्यावरणीय प्रशासन’’ विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। परिचर्चा के मुख्य अतिथि एवं श्री माता वैष्णो देवी विश्वविद्यालय, कटरा, जम्मू के कुलपति, पद्मश्री प्रो. आर.के. सिन्हा, तथा ‘डाल्फिनमैन’ नाम के प्रसिद्ध, पद्मश्री प्रो॰ आर॰के॰ सिन्हा, कुलपति, ने परिचर्चा के दौरान कहा कि पहले राँची में 10 से 20 फीट में ही पानी आराम से निकलता था, क्यांेकि बोरिंग का कांसेप्ट नहीं था। लोग कूएँ नलकूप, तालाबों, नदियों से अपने लिए पानी का उपयोग कर लेते थे, खेती के लिए भी पानी पर्याप्त हो जाती थी। आज डीप बोरिंग, बोरवेल के कारण जलस्तर 400 से 500 फीट नीचे चला गया है। भारत में जीव-जन्तुओं की कुल प्रजाति 80 लाख से अधिक है, जिनमें से 20 लाख प्रजातियों का चिन्हितीकरण हो चुका है। आज ार्प्यावरण के बारे में वैश्विक चिन्ता व्यक्त की जा रही है। पर्यावरण संबंधी समस्याओं के लिए कोई भी राजनीतिक दीवार नहीं होना चाहिए। चाहे वह झारखण्ड का हो या उत्तर प्रदेश का पर्यावरणीय मामला, सभी को समान रूचि लेकर उसका हल निकालना चाहिए।
उन्होंने कहा कि आज मानव शिक्षित हो गया है लेकिन उनमें व्याहारिक ज्ञान की काफी कमी है। कृषि प्रधान देश में आज जैविक खाद ही उपलब्ध नहीं है, आयतित उर्वरक एवं पेस्टिसाईडों के सहारे फसलों की उत्पादकता बढ़ायी जा रही है। इन पेस्टिसाईडों का दुष्प्रभाव 50 से 100 साल तक रहता है। यदि आज से ही भारत में इसका उपयोग बंद हो तो भी इसका प्रभाव अगले 50 सालों तक विद्यमान रहेगा। इससे इसकी भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। भारत जो पूर्व सदी तक दलहन एवं तिलहन पर आत्मनिर्भर था, उसे भी आज इन सबका आयात करना पड़ रहा है। आज हम भौतिकवादी हो गये है।
आज हम सभी को ‘थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली’ का मूलमंत्र अपनाना होगा। हमें हमारे पूर्वजों ने झील, तालाब, नदी, जंगल आदि विरासत में देकर गये और हम आज अपनी पीढ़ी को गंदी नाले, डंपिंग यार्ड सौंप रहे है, जिसके लिए भावी पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी। इन सारी तथ्यों पर हमें गंभीरता से सोचना होगा, उस पर अमल करना होगा। जल संरक्षण, ऊर्जा संरक्षण पर सतत् कार्य करना होगा तभी हम इसे नियंत्रित कर पायेंगे।
रविवार होने के कारण मेले में और दिन की अपेक्षा काफी भीड़ रही। मेले में टेण्डर हार्ट एवं डी.ए.वी., कपिलदेव जैसे प्रतिष्ठित विद्यालयों के छात्रों द्वारा उनके स्टॉलों में ‘प्रदूषण के कुप्रभाव एवं पर्यावरण संरक्षण के उपाय’ जैसे विषय पर मॉडल एवं प्रदर्शनी लगाकर इसके बारे में विस्तृत जानकारी मेले में घूमने आये लोगों को दी जा रही है। इनडोर एवं आउटडोर के सजावट, औषधीय पौधे मेले के प्रमुख आकर्षण में से एक है। खादी एवं कुटिर उद्योगों के उत्पादों में 40 प्रतिशत तक छूट दी जा रही है, जिसके कारण उनके स्टॉलों में काफी लोग अपने पसंद के सामग्री खरीद रहे है। मेले में कल से चल रहे दो दिवसीय पर्यावरण आर्ट कैम्प का आज समापन हो गया, जिसमें पूरे राज्य के कलाकारों ने भाग लिया। कार्यक्रम के बाद उन सभी कलाकारों को सम्मानित एवं पुरस्कृत किया गया।
परिचर्चा के सम्मानित अतिथि एवं आई-फॉरेस्ट संस्था के सीईओ, श्री चन्द्रभूषण ने बताया कि पारम्परिक ज्ञान एवं आधुनिक ज्ञान में सामंजन की आवश्यकता है। भारत के कई राज्यों में पर्यावरण पर केवल संगोष्ठी आयोजित होती है, उन पर परिचर्चा, इंटरेक्शन नहीं होता है, जिसके कारण वे सफलीभूत नहीं हो पाते है। अंतर्राष्ट्रीय नीति के अनुसार पृथ्वी पर विद्यमान कुल प्राकृतिक संसाधनों का 30 फीसदी अक्ष्णुण रखा जाना चाहिए। उनपर किसी भी तरह का मानवीय हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। पर इस नीति का पालन विकासशील देशों के साथ विकसित देश भी नहीं कर रहे है, जिसका खामियाजा पूरा विश्व भुगतेगा।
उन्होंने कहा कि बड़े-बड़े देश र्प्यावरण संरक्षण संबंधी विषय पर केवल टारगेट पर टारगेट सेट कर रहे है, लेकिन उनका क्रियान्वयन नहीं कर रहे है। ये जो टारगेट सेट करनेवाले तथाकथित बुद्धिजीवी होते है, उनका जमीनी हकीकत से कोई वास्ता नहीं होता। नतीजतन पैसा, श्रम, संसाधन एवं समय की बेवजह बर्बादी होती है। झारखण्ड की आर्थिक धूरी कोयला एवं खनिज संसाधनों के इर्दर्गिद घूमती है और यह केवल इन्हीं पर निर्भर है, जिसके कारण झारखण्ड पर्यावरणीय असंतुलन की झंझावतों से बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
झारखण्ड के पूर्व पीसीसीएफ एवं वर्तमान में क्लाईमेट पार्लियामेंट के उप प्रधान सचिव, डॉ. संजय कुमार ने कहा कि आज र्प्यावरण के प्रति सारे संसार के राजनीतिक सोच-विचार में काफी अंतर महसूस की जा रही है। चिली, ब्राजिल, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश विश्वस्तर पर उसी को नेता मानने की मांग कर रहे है, जिनमें र्प्यावरण के प्रति संवेदनशीलता हो, यह काफी सुखद स्थिति है। पेरिस समझौते के अनुसार किसी भी परिस्थिति में पूर्व औद्योगिकी काल के तापमान से 2 डिग्री से अधिक तापमान में वृद्धि नहीं होना चाहिए। पर यह नहीं हो रहा है। पृथ्वी के कुल भू-भाग का एक प्रतिशत मानव के रहने योग्य नहीं है, क्योंकि यह अत्याधिक गर्म स्थान है। अगर र्प्यावरण के प्रति लापरवाही इसी गति से चलता रहा तो 2070 तक पृथ्वी का 20 प्रतिशत हिस्सा अत्यधिक गर्म हो जायेगा और वह रहने योग्य नहीं होगा। जिसके कारण ‘फोर्स्ड माईग्रेशन’ की स्थिति आ जायेगी। इसका दुष्प्रभाव सारे विश्व में पड़ेगा। भारत में यह स्थिति नहीं आई है, परन्तु दूसरे देशों में इसका असर देखने को मिल रहा है। हमारे झारखण्ड में कई ऐसे स्थान है, जहां पिछले 150 सालों में तापमान 4 से 5 डिग्री बढ़ चुका है। गर्मी के पूर्व ही लोग आजकल एयर कंडिशन का प्रयोग कर रहे है और ठंढ का आनंद ले रहे है, पर वे भूल रहे है कि जितना एसी जितना ठंड अंदर करता है उतना ही वह बाहर में गर्मी पैदा करता है और ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण है। जंगलों एवं खाने की कमी के कारण हाथी का विचरण क्षेत्र रिहायशी इलाके हो गये हैं, झारखण्ड में प्रतिवर्ष हाथियों के हमले से 70 से 80 आदमी मारे जा रहे है, जो काफी चिंताजनक है।
लाईफ, नई दिल्ली के संरक्षक डॉ. राकेश कुमार सिन्हा ने कहा कि आज के युग में प्रदूषण के साथ-साथ सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट बहुत बड़ी चुनौती के रूप में उभरी है। पहले के लोग पर्व-त्यौहार, शादी-ब्याह जैसे काय्रक्रमों में लोग साल या दूसरे पत्तें के बने पत्तल पर भोजन करते थे, उसके बाद उसे बाहर फेंक देते थे। जो कुछ दिन बाद डिकंपोस्ट होकर खाद बन जाता था। परन्तु आज आधुनिकता के दिखावे में लोग थर्मोकोल और प्लास्टिक के बर्तनों का इस्तेमाल कर रहे जो न तो सड़ता है और न ही गलता है, बल्कि यह जमीन की उर्वरता को समाप्त कर देता है साथ ही नदियों में जाकर यह जल एवं जलीय जीवों के जीवन को भी प्रभावित करता है। आज शहरीकरण के कारण पारम्परिक अभ्यास का लोप हो चुका है। आज हर चीज का मूल्यांकन केवल आर्थिक दृष्टि से हो रहा है, जरूरत के अनुसार उसका मूल्यांकन नहीं हो रहा है, जिसके कारण पर्यावरण आज उपेक्षित हो गया है। जंगल, पहाड़ बहुल राँची जैसे शहर में भी आज सैकड़ों की संख्या में क्लिीनक एवं अस्पताल खुल गये है, जिसे कभी दक्षिण बिहार का शिमला कहा जाता था। भारत में ग्लोबल वार्मिंग से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला राज्य उत्तर प्रदेश है। अगर पर्यावरण के प्रति इसी प्रकार से लापरवाही बरती गई तो झारखण्ड भी ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में बुरी तरह से आ जायेगा।
परिचर्चा के उपरांत संध्या 7 बजे से कालबेलिया जिप्सी एवं भोजपुरी गीत-संगीत का सास्ंकृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसका मेले में आये हुए लोगों ने भरपूर आनन्द लिया। मेले में उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग के निदेशक, श्री दीपक सिंह सहित कई गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति रही।् मु
ख्य अतिथि एवं श्री माता वैष्णो देवी विश्वविद्यालय, कटरा, जम्मू के कुलपति, पद्मश्री प्रो. आर.के. सिन्हा, तथा ‘डाल्फिनमैन’ नाम के प्रसिद्ध, पद्मश्री प्रो॰ आर॰के॰ सिन्हा, कुलपति, ने परिचर्चा के दौरान कहा कि पहले राँची में 10 से 20 फीट में ही पानी आराम से निकलता था, क्यांेकि बोरिंग का कांसेप्ट नहीं था। लोग कूएँ नलकूप, तालाबों, नदियों से अपने लिए पानी का उपयोग कर लेते थे, खेती के लिए भी पानी पर्याप्त हो जाती थी। आज डीप बोरिंग, बोरवेल के कारण जलस्तर 400 से 500 फीट नीचे चला गया है। भारत में जीव-जन्तुओं की कुल प्रजाति 80 लाख से अधिक है, जिनमें से 20 लाख प्रजातियों का चिन्हितीकरण हो चुका है। आज ार्प्यावरण के बारे में वैश्विक चिन्ता व्यक्त की जा रही है। पर्यावरण संबंधी समस्याओं के लिए कोई भी राजनीतिक दीवार नहीं होना चाहिए। चाहे वह झारखण्ड का हो या उत्तर प्रदेश का पर्यावरणीय मामला, सभी को समान रूचि लेकर उसका हल निकालना चाहिए।
उन्होंने कहा कि आज मानव शिक्षित हो गया है लेकिन उनमें व्याहारिक ज्ञान की काफी कमी है। कृषि प्रधान देश में आज जैविक खाद ही उपलब्ध नहीं है, आयतित उर्वरक एवं पेस्टिसाईडों के सहारे फसलों की उत्पादकता बढ़ायी जा रही है। इन पेस्टिसाईडों का दुष्प्रभाव 50 से 100 साल तक रहता है। यदि आज से ही भारत में इसका उपयोग बंद हो तो भी इसका प्रभाव अगले 50 सालों तक विद्यमान रहेगा। इससे इसकी भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। भारत जो पूर्व सदी तक दलहन एवं तिलहन पर आत्मनिर्भर था, उसे भी आज इन सबका आयात करना पड़ रहा है। आज हम भौतिकवादी हो गये है।
आज हम सभी को ‘थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली’ का मूलमंत्र अपनाना होगा। हमें हमारे पूर्वजों ने झील, तालाब, नदी, जंगल आदि विरासत में देकर गये और हम आज अपनी पीढ़ी को गंदी नाले, डंपिंग यार्ड सौंप रहे है, जिसके लिए भावी पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी। इन सारी तथ्यों पर हमें गंभीरता से सोचना होगा, उस पर अमल करना होगा। जल संरक्षण, ऊर्जा संरक्षण पर सतत् कार्य करना होगा तभी हम इसे नियंत्रित कर पायेंगे।
रविवार होने के कारण मेले में और दिन की अपेक्षा काफी भीड़ रही। मेले में टेण्डर हार्ट एवं डी.ए.वी., कपिलदेव जैसे प्रतिष्ठित विद्यालयों के छात्रों द्वारा उनके स्टॉलों में ‘प्रदूषण के कुप्रभाव एवं पर्यावरण संरक्षण के उपाय’ जैसे विषय पर मॉडल एवं प्रदर्शनी लगाकर इसके बारे में विस्तृत जानकारी मेले में घूमने आये लोगों को दी जा रही है। इनडोर एवं आउटडोर के सजावट, औषधीय पौधे मेले के प्रमुख आकर्षण में से एक है। खादी एवं कुटिर उद्योगों के उत्पादों में 40 प्रतिशत तक छूट दी जा रही है, जिसके कारण उनके स्टॉलों में काफी लोग अपने पसंद के सामग्री खरीद रहे है। मेले में कल से चल रहे दो दिवसीय पर्यावरण आर्ट कैम्प का आज समापन हो गया, जिसमें पूरे राज्य के कलाकारों ने भाग लिया। कार्यक्रम के बाद उन सभी कलाकारों को सम्मानित एवं पुरस्कृत किया गया।
परिचर्चा के सम्मानित अतिथि एवं आई-फॉरेस्ट संस्था के सीईओ, श्री चन्द्रभूषण ने बताया कि पारम्परिक ज्ञान एवं आधुनिक ज्ञान में सामंजन की आवश्यकता है। भारत के कई राज्यों में पर्यावरण पर केवल संगोष्ठी आयोजित होती है, उन पर परिचर्चा, इंटरेक्शन नहीं होता है, जिसके कारण वे सफलीभूत नहीं हो पाते है। अंतर्राष्ट्रीय नीति के अनुसार पृथ्वी पर विद्यमान कुल प्राकृतिक संसाधनों का 30 फीसदी अक्ष्णुण रखा जाना चाहिए। उनपर किसी भी तरह का मानवीय हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। पर इस नीति का पालन विकासशील देशों के साथ विकसित देश भी नहीं कर रहे है, जिसका खामियाजा पूरा विश्व भुगतेगा।
उन्होंने कहा कि बड़े-बड़े देश र्प्यावरण संरक्षण संबंधी विषय पर केवल टारगेट पर टारगेट सेट कर रहे है, लेकिन उनका क्रियान्वयन नहीं कर रहे है। ये जो टारगेट सेट करनेवाले तथाकथित बुद्धिजीवी होते है, उनका जमीनी हकीकत से कोई वास्ता नहीं होता। नतीजतन पैसा, श्रम, संसाधन एवं समय की बेवजह बर्बादी होती है। झारखण्ड की आर्थिक धूरी कोयला एवं खनिज संसाधनों के इर्दर्गिद घूमती है और यह केवल इन्हीं पर निर्भर है, जिसके कारण झारखण्ड पर्यावरणीय असंतुलन की झंझावतों से बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
झारखण्ड के पूर्व पीसीसीएफ एवं वर्तमान में क्लाईमेट पार्लियामेंट के उप प्रधान सचिव, डॉ. संजय कुमार ने कहा कि आज र्प्यावरण के प्रति सारे संसार के राजनीतिक सोच-विचार में काफी अंतर महसूस की जा रही है। चिली, ब्राजिल, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश विश्वस्तर पर उसी को नेता मानने की मांग कर रहे है, जिनमें र्प्यावरण के प्रति संवेदनशीलता हो, यह काफी सुखद स्थिति है। पेरिस समझौते के अनुसार किसी भी परिस्थिति में पूर्व औद्योगिकी काल के तापमान से 2 डिग्री से अधिक तापमान में वृद्धि नहीं होना चाहिए। पर यह नहीं हो रहा है। पृथ्वी के कुल भू-भाग का एक प्रतिशत मानव के रहने योग्य नहीं है, क्योंकि यह अत्याधिक गर्म स्थान है। अगर र्प्यावरण के प्रति लापरवाही इसी गति से चलता रहा तो 2070 तक पृथ्वी का 20 प्रतिशत हिस्सा अत्यधिक गर्म हो जायेगा और वह रहने योग्य नहीं होगा। जिसके कारण ‘फोर्स्ड माईग्रेशन’ की स्थिति आ जायेगी। इसका दुष्प्रभाव सारे विश्व में पड़ेगा। भारत में यह स्थिति नहीं आई है, परन्तु दूसरे देशों में इसका असर देखने को मिल रहा है। हमारे झारखण्ड में कई ऐसे स्थान है, जहां पिछले 150 सालों में तापमान 4 से 5 डिग्री बढ़ चुका है। गर्मी के पूर्व ही लोग आजकल एयर कंडिशन का प्रयोग कर रहे है और ठंढ का आनंद ले रहे है, पर वे भूल रहे है कि जितना एसी जितना ठंड अंदर करता है उतना ही वह बाहर में गर्मी पैदा करता है और ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण है। जंगलों एवं खाने की कमी के कारण हाथी का विचरण क्षेत्र रिहायशी इलाके हो गये हैं, झारखण्ड में प्रतिवर्ष हाथियों के हमले से 70 से 80 आदमी मारे जा रहे है, जो काफी चिंताजनक है।
लाईफ, नई दिल्ली के संरक्षक डॉ. राकेश कुमार सिन्हा ने कहा कि आज के युग में प्रदूषण के साथ-साथ सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट बहुत बड़ी चुनौती के रूप में उभरी है। पहले के लोग पर्व-त्यौहार, शादी-ब्याह जैसे काय्रक्रमों में लोग साल या दूसरे पत्तें के बने पत्तल पर भोजन करते थे, उसके बाद उसे बाहर फेंक देते थे। जो कुछ दिन बाद डिकंपोस्ट होकर खाद बन जाता था। परन्तु आज आधुनिकता के दिखावे में लोग थर्मोकोल और प्लास्टिक के बर्तनों का इस्तेमाल कर रहे जो न तो सड़ता है और न ही गलता है, बल्कि यह जमीन की उर्वरता को समाप्त कर देता है साथ ही नदियों में जाकर यह जल एवं जलीय जीवों के जीवन को भी प्रभावित करता है। आज शहरीकरण के कारण पारम्परिक अभ्यास का लोप हो चुका है। आज हर चीज का मूल्यांकन केवल आर्थिक दृष्टि से हो रहा है, जरूरत के अनुसार उसका मूल्यांकन नहीं हो रहा है, जिसके कारण पर्यावरण आज उपेक्षित हो गया है। जंगल, पहाड़ बहुल राँची जैसे शहर में भी आज सैकड़ों की संख्या में क्लिीनक एवं अस्पताल खुल गये है, जिसे कभी दक्षिण बिहार का शिमला कहा जाता था। भारत में ग्लोबल वार्मिंग से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला राज्य उत्तर प्रदेश है। अगर पर्यावरण के प्रति इसी प्रकार से लापरवाही बरती गई तो झारखण्ड भी ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में बुरी तरह से आ जायेगा।
परिचर्चा के उपरांत संध्या 7 बजे से कालबेलिया जिप्सी एवं भोजपुरी गीत-संगीत का सास्ंकृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसका मेले में आये हुए लोगों ने भरपूर आनन्द लिया। मेले में उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग के निदेशक, श्री दीपक सिंह सहित कई गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति रही।