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गाँव मेरा


यादें आतीं जाती क्षण क्षण
गुजारे दिन वह गाँव की
सोंधी सी खुशबू से लिपटी
ममता भरी उस छाँव की।

वो दिन कितना मनभावन था
घूमते फिरते रहते थे
माटी में ही गिर पड़ के हम
हरदम हँसते रहते थे।

खेल कूद कर दौड़ भाग कर
आते थे जब दुवरे पे,
बाट जोहती माई मेरी
खयका देती अँचरे से।

गुड़ बताशे की भेली में
जाने वो कैसा स्वाद था
तृप्त हो जाता था हृदय
माँ की लाड जैसा था।

विवाह शादी का जब दिन हो
अंज्ञा आता था घर-घर,
फिर तो मानो दिन चांदी के
आता बयना भर भर कर।

खाजा, गाजा, लड्डू,टिकरी
उफ्फ्फ मुँह में पानी आया,
चोरी चोरी उसको खाकर
कहते मात कुछ न खाया।

छत पर सोते बातें करते
हम सब चंदा मामा से
शुरू हो जाता था फिर दिन तो
ककहारा अरु पहाड़ा से

ऊँचे ऊंँचे इस भवन महल में
सब कुछ पर वीरानी है
गाँव तेरे गोद के जैसा
दुजा न कोई सानी है।

सविता सिंह मीरा
जमशेदपुर

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