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सामाजिक न्याय का तकाजा यही कहता है की भागीदारी का आधार आर्थिक सामाजिक स्थिति होनी चाहिए :लक्ष्मी सिन्हा

बिहार पटना: बिहार में जाति आधारित गणना के आंकड़े जारी होने के बाद समाजसेविका श्रीमती लक्ष्मी सिन्हा ने कहा कि बिहार सरकार की ओर से कराई गई जाति गणना के जो आंकड़े सार्वजनिक किए गए, लेकिन उन्हें यह भी बताना चाहिए कि विभिन्न जातियों की आर्थिक- सामाजिक स्थिति क्या है? जातिवार गणना यह तो बता रही है कि किस जाति का कितना प्रतिशत है। लेकिन अभी यह नहीं स्पष्ट किया गया कि किनकी आर्थिक स्थिति क्या है? क्या यह उचित नहीं होता कि जातियों का प्रतिशत बताने के साथ ही उनकी आर्थिक स्थिति का विवरण भी सामने रखा जाता? कहीं इसे इसलिए तो नहीं बचाया गया कि देशभर में जाती गणना की जो मांग हो रही है, उसे बल दिया जा सके? सच जो भी हो, जातिवार गणना के आंकड़ों का उपयोग आरक्षण को राजनीतिक हथियार बनाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। आरक्षण के जरिए सामाजिक न्याय के लक्ष्य को तभी हासिल किया जा सकता है, जब पात्र व्यक्तियों यानी वंचित एवं पिछड़े लोगों को संबल दिया जाएगा। यह ध्यान रहे की बिहार में सामाजिक न्याय की पैरवी करने वाले दल बीते करीब तीन दशक से सत्ता में है, लेकिन यह राज्य आर्थिक रूप से बहुत पीछे है आखिर क्यों? श्रीमती सिन्हा में आगे कहा कि जनगणना के साथ जातियों की गणना करने की मांग करने वाले इस पर जोर दे रहे हैं की जिसकी जितनी हिस्सेदारी हो, उनकी उतनी भागीदारी भी हो। सुनने में यह अच्छा लगता है, लेकिन सामाजिक न्याय का तकाजा यही कहता है कि भागीदारी का आधार आर्थिक-सामाजिक स्थिति होनी चाहिए। सामाजिक न्याय के नाम पर समाज को जातीय रूप से विभाजित करने वाली वोट बैंक की राजनीतिक से बचा जाना चाहिए। नि:संदेह पिछड़ी कहीं जाने वाली कई जातियां ऐसी हैं, जिनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति कमजोर है, लेकिन इस नतीजे पर भी पहुंचना सही नहीं की ऐसी जातियों के सभी लोग आर्थिक रूप से विपन्न है अथवा उनकी सामाजिक हैसियत वही है, जो दशकों पहले थी। राज्य सरकार को आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्तियों पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है, चाहे वह किसी भी जाति किसी भी धर्म क्यों ना हो।

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