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टिकट वितरण में पक्षपात कहीं डुबो न दें भाजपा की चुनावी नैया


रघुबंश मणि सिंह
जमशेदपुर। लगता हैं पूर्वी सिंहभूम जिले में टिकट वितरण में पक्षपात भाजपा की चुनावी नैया डुबो देगा।
झारखंड विधानसभा चुनाव में जिस तरह से पार्टी अलाकमान की ओर से टिकटो का बंटवारा हुआ है, उसमें पूरी तरह से परिवारवाद की झलक नजर आ रही है।
और यही परिवारवाद का सिलसिला भाजपा की नैया डूबाएगा तो कोई आश्चर्य वाली बात नहीं होगी?

अब जमशेदपुर पूर्वी विधानसभा सीट की ही बात को ले लिया जाय तो इस बार भी स्थानीय निवासी पूर्व मुख्यमंत्री और उड़ीसा के राज्यपाल रघुवर दास अपनी बहू पूर्णिमा दास को टिकट देने में सफल रहे। अब इस सीट से भाजपा नेता रामबाबू तिवारी, मिथिलेश सिंह यादव, दिनेश कुमार, शिव शंकर सिंह सरिखे के नेता आस लगाए बैठे थे कि उन्हें इस चुनाव में भाग्य आजमाने का मौका मिलेगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इससे भाजपा नेताओं में काफी नाराजगी देखने को मिल रही है। स्थानीय निवासी और पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा की पत्नी मीरा मुंडा को पोटका विधानसभा से टिकट मिल गया। इससे नाराज होकर पूर्व विधायक और भाजपा नेत्री मेनका सरदार ने पार्टी से नराज होकर इस्तीफा दे दिया। इसके साथ ही हाल ही के दिनों में झारखंड मुक्ति मोर्चा से भाजपा में शामिल हुए झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन को सरायकेला से उम्मीदवार बनाने के साथ साथ उनके पुत्र बाबूलाल सोरेन को घटशीला से टिकट दें दिया। इतना ही नहीं बल्कि धनबाद के सांसद ढूंल्लू महतो के भाई शत्रुधन महतो को पार्टी ने टिकट दें दिया।
इसके साथ ही गोड्डा से रघुनन्दन मंडल के पुत्र अमित मंडल, झरिया से संजीव सिंह की पत्नी रागिनी सिंह,को पार्टी ने टिकट दिया।

इस परिवारवाद के सिलसिले से भाजपा कार्यकर्ताओं में भागदड़
मची हुई हैं। एक तरफ देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं की कांग्रेस परिवारवाद की राजनीति करती हैं, क्योंकि भाजपा का चाल, चरित्र और चेहरा अलग हैं। लेकिन यह कहा तक सच दिख रहा हैं आम जनता खूब समझ रही हैं।
वैसे विश्व के राजनीतिक पटल पर वट वृक्ष का स्वरुप ले चुका भाजपा ने जिसको टिकट नही दिया, उसके मायने यह नही कि वे हारने वाले ही होंगे।
उसमे कुछ उम्मीदवार ऐसे भी है जो पार्टी के कार्यकर्ता सहयोग से विजयी झंडा गाड़ सकते हैं।
पर परिवार वाद, व्यक्तिवाद, जातिवाद के चश्मे ने उनके कोशिशों पर पानी फेर दिया।
अब सवाल है कि क्या कुछ आशान्वित उम्मीदवारों को टिकट नही मिलने से वे सभी भाजपा और इसके सहयोगी दल के अधिकृत उम्मीदवारों को जीत के दहलीज पर जाते जाते रोक पायेंगे।निश्चित तौर पर कुछ तो खेल खराब कर ही देंगें।

पर एक और यक्ष प्रश्न है। उस स्थिति में राज्य के बड़े नेताओं पर जिसने कि किसी न किसी को अपना वीटो लगाकर, समर्थन देकर टिकट दिलाने में सफलता पाया है। उनके द्वारा समर्थित उम्मीदवार के हारने के बाद, ऐसे बड़े नेताओं के राजनीतिक कैरियर पर क्या असर पड़ेगा ?
तो क्या इसका जबाब होगा वक्त ही बतायेगा।

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