रावण दहन
दशहरा मैदान में लोगों की असंख्य भीड़ जमा थी और सामने मंच पर आयोजन समिति द्वारा आयोजित रामलीला का कार्यक्रम चल रहा था। आसपास के इलाकों से दर्शकों की भीड़ उस कार्यक्रम को देखने के लिए उमड़ी हुई थी जिसमें बहुतायत में महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। सबका ध्यान मंच में चल रही रामलीला की ओर था और जिन्हें मंच दिखाई नहीं दे रहा था उनका ध्यान रावण के विशालकाय पुतले पर था कि कब उसे जलाया जाए और वे सब अपने घरों की ओर वापस लौट सकें।
उसी भीड़ में शामिल कुछ मनचले युवकों का एक परिवार से विवाद हो रहा था शायद उन्होंने भीड़ का फायदा उठाकर उनकी बेटी के साथ छेड़छाड़ किया था। मैंने जाकर उन्हें समझाया कि भाई ये सब ठीक नहीं है यहां एक धार्मिक स्थल में आप लोग ये कौन सा घृणित कार्य कर रहे हैं, लेकिन वे लोग नशे में थे और उल्टा मुझे ही आंखें दिखाने लगे तो मैंने उन सभ्य परिवार को ही समझाकर दूसरी ओर भेज दिया कि इन जैसे जानवरों के मुंह मत लगिए। वे मेरी बात मानकर दूसरी ओर चले गए और झगड़ा शांत हो गया, लेकिन सामने खड़े उन जीवित रावणों की ओर देखकर अब मेरे मन में यह विचार तैरने लगा कि दशहरा में रावण दहन की परंपरा सदियों से चली आ रही है लेकिन इसका असली मतलब कोई आज तक नहीं समझा है।
रावण दहन सिर्फ इस बात का प्रतीक है कि अधर्म और बुराई कितनी ही ताकतवर क्यों न हो आखिर अच्छाई के आगे हार ही जाती है और इस दिन हमें भी अपने अंदर की बुराइयों का त्याग करके उनको रावण के पुतले के रूप में जला देना चाहिए न कि उसके पुतला दहन के कार्यक्रम की आड़ में और भी बुरे काम करते चलें। एक ओर लोग रावण के पुतले को जलाकर अधर्म पर धर्म की जीत का पर्व मनाते हैं और दूसरी ओर अपने अंदर रावण से भी अधिक बुराइयों को बसाकर रखते हैं। जब तक हमारे अंदर ऐसी बुराइयों का बसेरा है तब तक हमें रावण दहन करने का कोई अधिकार नहीं।
मुकेश कुमार सोनकर
“सोनकरजी”
भाठागांव रायपुर छत्तीसगढ़