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योग एक वैज्ञानिक दर्शन : अजय कुमार सिंह


शिमला। आज ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ है। इस वर्ष का थीम ‘महिला सशक्तिकरण के लिए योग’ है। यह विषय महिलाओं के समग्र विकास व कल्याण में योग की भूमिका पर जोर देता है, महिलाओं के जीवन पर योग के परिवर्तनकारी प्रभाव को बढ़ावा देता है तथा शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक माध्यमों से उनके सशक्तिकरण पर जोर देता है। इस शुभ अवसर पर ‘राष्ट्रीय सहारा’ में वर्ष 2021 में प्रकाशित मेरा निबन्ध ‘योग : एक वैज्ञानिक दर्शन’ आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ। ‘योग’ एक अद्भुत आध्यात्मिक व वैज्ञानिक विद्या है। आप सभी इसे अवश्य पढें। मुझे पूरा विश्वास है कि इस निबन्ध से आप सभी को योग के तरफ प्रवृत्त होने की प्रेरणा मिलेगी।

“योगेन चित्तस्य पदेन वाचां, मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां, पतंजलि प्रांजलिरानतोऽस्मि।।”

(अर्थात् योग से चित्त का, व्याकरण से वाणी का व वैद्यक से शरीर का मल जिन्होंने दूर किया, उस मुनि श्रेष्ठ पतंजलि को मैं अंजलिबद्ध होकर नमस्कार करता हूँ।)

आप सभी को ‘अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस’ की हार्दिक बधाई व शुभकामनायें।

‘योग : एक वैज्ञानिक दर्शन’

योग भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। योग के बिना सनातन-संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज से हजारों साल पहले विश्व-मानव-समाज शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की अनेक चुनौतियों से जूझ रहा था। परलोक तो दूर, इहलोक का ज्ञान भी अत्यंत सीमित था। ऐसे समय में हमारे ऋषि-मुनियों ने सूक्ष्‍म-विज्ञान पर आधारित एक ऐसी आध्‍यात्मिक विद्या की खोज की जो ‘योग’ के रूप में आगे चलकर मानव-स्वास्थ्य के लिए संजीवनी साबित हुआ। भारतीय मिशन ने संयुक्तराष्ट्र संघ में 11 अक्टूबर 2014 को इसका प्रस्ताव दिया था। अमेरिका और यूरोप समेत दुनिया के 177 देशों ने भारत के पक्ष में वोट दिया और 2015 से ’21 जून’ ‘अन्तर्राष्ट्रीय-योग-दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है।

योग की उत्पत्ति : ‘योग’ शब्‍द संस्‍कृत की ‘युज्’ धातु से बना है जिसका अर्थ जुड़ना या एकजुट होना है। योग व्‍यक्ति की चेतना को ब्रह्मांड की चेतना से जोड़ता है जिससे मन एवं शरीर व मानव एवं प्रकृति के बीच परिपूर्ण सामंजस्‍य स्‍थापित होता है। योग-विद्या में ‘शिव’ को पहले योगी या ‘आदि योगी’ तथा पहले गुरू या ‘आदि गुरू’ के रूप में माना जाता है। वेदों से ही योग-विद्या की उत्पत्ति हुई है। वैदिक साहित्य से लेकर उपनिषद काल तक और उपनिषद काल से लेकर आधुनिक काल तक जहां कहीं भी हम ‘योग’ शब्द सुनते हैं, उसका आधार वैदिक वांग्मय ही है।
‘यस्मादृते न सिद्धयति यज्ञो विपश्चितश्चन स धीनां योगमिन्वति।’ (ऋग्वेद)

(ईश्वर के बिना ज्ञानी का जीवन भी सफल नहीं होता। ईश्वर में ही ज्ञानियों को अपनी बुद्धि एवं कर्मों का योग करना चाहिए।)

वेद (4), उपनिषद (18), भगवद्गीता, स्‍मृतियों, बौद्ध-धर्म, जैन-धर्म, वेदांत, पाणिनी और पुराण (18) आदि में योग का वर्णन मिलता है।

भगवद्गीता में योग-वर्णन : करीब 5000 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण ने योग को सर्वश्रेष्ठ जीवन-पद्धति और मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग बताया। उनके अनुसार योग तीन प्रकार के हैं : कर्म योग, ज्ञान योग (सांख्य योग) और भक्ति योग। वे अर्जुन को योग का महत्व व तरीका समझाते हैं : ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ और ‘समत्वं योग उच्यते’ (भगवद्गीता 2.48)। (हे धनंजय, योग में स्थित होकर कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।) आगे ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ (भगवद्गीता 2.50) द्वारा कुशलता पूर्वक निष्पादित उचित कर्म को योग कहते हैं। छठे अध्याय में तो योगी को सर्वश्रेष्ठ बताकर ‘योग’ की सर्वोच्चता स्थापित करते हैं :

“तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।”
(भगवद्गीता 6.46)

(तपस्वियों और ज्ञानियों से योगी श्रेष्ठ है। सांसारिक व सकाम कर्म करनेवालों से भी योगी श्रेष्ठ है। इसलिये हे अर्जुन ! तुम योगी बनो।)

पतंजलि का योगसूत्र : महर्षि पतंजलि ने योग की बहुत ही सरल विधि योग साधकों तक पहुंचाई है। उनका ‘योगसूत्र’ योग-दर्शन का मूल ग्रंथ है। योगसूत्रों की रचना 3000 साल पहले पतंजलि ने की। ‘योगसूत्र’ में चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान है। पतंजलि के अनुसार, चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना (योग: चित्तवृत्तिनिरोधः) ही योग है। महर्षि पतंजलि ने योग साधाना के आठ आयाम बतायें हैं जिसमें यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि शामिल हैं। यह क्रमबद्ध तरीके से ही किया जाना चाहिए। यम का पालन (सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह) जीवन-ऊर्जा को नयी दिशा देता है। नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्राणिधान) के पालन से पवित्रता और दिव्यता आती है। आसन (स्थिरसुखमासनम् अर्थात जो स्थिर व सुखदायी हो वह आसन है।) से शरीर मजबूत, सुखी व शांत होता है। प्राणायाम श्वास को नियंत्रित कर प्राणगति को विस्तार देता है। प्रत्याहार (इन्द्रियों को विषयों की ओर न जाने देना ही प्रत्याहार है) से हमारी इन्द्रियां वश में होती हैं। धारणा में चित्त को किसी स्थान विशेष जैसे : नाभि, नासिकाग्र, भृकुटी, ब्रह्ममरन्ध्र, चन्द्र, तारे, वृक्ष, मोमबत्ती की लौ आदि पर स्थिर किया जाता है। किसी एक बिंदु पर एकाग्र होना धारणा है। सारे मंदिर धारणा के अभ्यास के लिए ही निर्मित किये जाते हैं। ध्यान में अनावश्यक कल्पना व विचारों को मन से हटाकर शुद्ध व निर्मल मौन में चले जाना होता है। एक बिंदु पर की गयी धारणा जब सतत प्रवाह में बहने लगती है तो ध्यान कहलाती है। धारणा में हम जिस बिंदु पर एकाग्र हैं ध्यान में वह बिंदु भी छूट जाता है। ध्यान है विचारों व क्रियाओं से मुक्त होना। जैसे-जैसे ध्यान गहन होता है व्यक्ति साक्षी-भाव में स्थिर होने लगता है। ध्यान में इंद्रियाँ मन के साथ विलीन होने लगती हैं। मन, बुद्धि के साथ होने लगता है और बुद्धि आत्मा में लीन होने लगती है। आज वैज्ञानिक खोजों व अनुसंधानों से ज्ञात हो चुका है कि ध्यान मनुष्य को स्वास्थ्य प्रदान करता है। समाधि योग का आठवां व अंतिम अंग है। जब योगी को अपने ध्येय विषय व स्वयं का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता तब यह स्थिति ‘समाधि’ कहलाती है। समाधि ऐसी स्थिति है जहां सारी व्याधियों का समाधान हो जाता है। समाधि पूर्ण स्वास्थ्य है। मस्तिष्क का एक भाग भावनाओं से युक्त होता है व दूसरा भाग बुद्धि व विचारों से युक्त। जब किसी कारण से दोनों के बीच असंतुलन उत्पन्न हो जाता है तब उलझन व कष्ट पैदा होते हैं। समाधि की स्थिति में इन सबका समाधान हो जाता है और दिव्य-शक्ति, परम-ज्ञान व परमानंद की प्राप्ति होती है।

प्राचीन काल से अबतक : सिंधु घाटी सभ्यता का भी संबंध योग से है। इस काल की कई मूर्तियाँ योग-मुद्रा में मिली हैं। 500 ईसा पूर्व-800 ईस्‍वी के दौरान योग-सूत्रों एवं भगवद्गीता आदि पर व्‍यास की टीकाएँ अस्तित्‍व में आईं। इसी अवधि में महावीर द्वारा ‘पंच महाव्रतों’ एवं बुद्ध द्वारा ‘अष्टांगिक मार्ग’ का सिद्धांत दिया गया। 800 ई-1700 ई के बीच की अवधि में आचार्यत्रयों- आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और माधवाचार्य योग-विद्या के प्रमुख उपदेशक थे। मत्‍स्‍येंद्र नाथ, गोरख नाथ, गौरांगी नाथ, स्‍वात्‍माराम सूरी, घेरांडा, श्रीनिवास भट्ट जैसी महान हस्तियों ने हठ योग की परंपरा को लोकप्रिय बनाया। 1700-1900 ईस्वी के बीच की अवधि को आधुनिक काल के रूप में माना जाता है जिसमें महान योगाचार्यों-रमन महर्षि, रामकृष्‍ण परमहंस, परमहंस योगानंद, विवेकानंद आदि ने राज योग के विकास में योगदान दिया। इसी अवधि में वेदांत, भक्ति योग, नाथ योग या हठ योग फला-फूूला। समकालीन युग में स्‍वामी विवेकानंद, श्री अरविंदो, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश, पट्टाभिजोइस, बी के एस आयंगर और स्‍वामी सत्‍येंद्र सरस्‍वती जैसी महान हस्तियों के उपदेशों से आज ‘योग’ पूरी दुनिया में फैल गया है। इस प्रकार, योग की अनेक शैलियां हैं : ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग, क्रिया योग, ध्‍यान योग, पतंजलि योग, कुंडलिनी योग, हठ योग, मंत्र योग, लय योग, राज योग, सहज योग, विहंगम योग, जैन योग व बुद्ध योग आदि। हर शैली के अपने स्‍वयं के सिद्धांत एवं पद्धतियां भी हैं। लेकिन ये सभी योग के परम लक्ष्‍य एवं उद्देश्‍यों की ओर ही ले जाती हैं।

निश्चय ही ‘योग’ संपूर्ण जीवन-दर्शन है। इससे ही निवारण और तारण है। यह शरीर और मन के बीच सामंजस्‍य स्‍थापित कर शारीरिक और मानसिक विकारों से मुक्ति का ऐसा आध्यात्मिक और वैज्ञानिक ज्ञान है जो न केवल व्यक्ति को आरोग्य प्रदान करता है बल्कि आत्मोत्थान कर मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। यह किसी धर्म विशेष के लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए है। ईसाई के साथ-साथ इस्लाम (सूफी संगीत परंपरा) में भी योग की बात कही गई है। योग का प्रयोग अब दुनिया भर में चिकित्सा-विज्ञान के रुप में हो रहा है। यह ‘स्वस्थ भारत’ से ‘हेल्दी वर्ल्ड’ की ओर बढ़ता हुआ कदम है। योग से संबंधित विश्वविद्यालय, शोध-संस्थान व आयुर्वेद मेडिसिन उद्योग नयी उम्मीदें और आशाएं लेकर आ रहे हैं। भारत और दुनिया में ‘योग’ बाजारवाद का ब्रांड बन गया है। कभी आयुर्वेद उत्पादन से जुड़ी कुछ कंपनियाँ होती थीं लेकिन आज बाढ़ आ गयी है। आज विश्व के लगभग 200 देश भारत की इस वैदिक परंपरा का अनुसरण कर रहे हैं। योग को पर्यटन उद्योग के रुप में भी विकसित किया जा सकता है। ‘विश्वशांति’ का पक्षधर भारत ‘योग’ के जरिये पुन: ‘विश्वगुरु’ बनने की ओर अग्रसर हो रहा है। तो आइये, योग अपनाएं, रोग भगाएं और सम्पूर्ण मानवता को स्वस्थ बनाएं।

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