जंगल काटे बाग उजाड़े, बस्ती नई बसाने को।
धरा धधक कर हुई अगन जब, तब बैठा पछताने को?
ऊँची-ऊँची इमारतों को, देख बहुत इतराया था।
भान हुआ क्या किस कीमत पर, यह विकास हो पाया था?
हरियाली की चूनर फाड़ी, आधुनिक बन जाने को।
धरा धधक कर हुई अगन जब, तब बैठा पछताने को।
शीतल जिनसे छाँव मिली थी, उनको काट गिराया है।
डाल दरख़्तों के सब नोचे, तूने ठाँव गँवाया है।
अब ढूँढे राहत की छइयाँ, आई अक्ल ठिकाने को?
धरा धधक कर हुई अगन जब, तब बैठा पछताने को।
श्वास-श्वास में जहर घुला है, लगे धौंकनी सा सीना।
अंगारों सा तपता मौसम, मर-मर कर पड़ता जीना।
हहाकार हर ओर मचा जब, सोचे पेड़ लगाने को।
धरा धधक कर हुई अगन जब, तब बैठा पछताने को।
रीना सिन्हा सलोनी✍️