बिहार । पटना समाजसेवी श्रीमती लक्ष्मी सिन्हा ने कहा कि संविधान अपने नागरिकों से जो अपेक्षा करता है, वही सब कुछ रामराज्य में लोगों के चरण में शामिल था।
श्रीराम लोकशाही के जीवित प्रतीक है। वह अपने लोगों से कहते हैं, ‘जै अनीति कछु भाखहुं भाई, मुझको बरिजहुं भय बिसराई।’अर्थात राज्यवासियों यदि मैं अनीति की बात कहूं तो आप बिना किसी भय के मुझे तुरंत रोक दीजिए। श्रीराम ऐसे शासक है, जो यह मानकर चलते हैं की उनसे भी गलती हो सकती है। इससे आगे बढ़कर वह अपनी प्रजा को यह अधिकार भी देते हैं कि वह अपने राजा को गलती करने से रोक दें। राजव्यवस्था का यह उच्चतम आदर्श है। हमारा संविधान यही आजादी अपने देशवासियों को देता है। यदि कोई शासक नीति विरुद्ध कुछ करता या कहता है तो उसे संविधान के अनुच्छेद 19 (1)क के अंतर्गत अपनी बात करने का अधिकार है। विकल्प के रूप में उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय भी जाने का अधिकार है। फिर पांच वर्षों की प्रतिक्षा के बाद चुनाव के माध्यम से सरकार बदलने का भी अधिकार है। हमारा संविधान भी श्रीराम के आदर्शों की तरह सभी को भय मुक्त होकर अपनी बात करने और यहां तक की शासन बदलने का अधिकार भी देता है। संविधान अपने नागरिकों से जो अपेक्षा करता है, वही सब कुछ रामराज्य में लोगों के आचंरण में शामिल था। संविधान के मूल कर्तव्यों के अनुच्छेद 51 (के)(ड.) में हर नागरिक से अपेक्षा की जाती है कि आपस में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करें, जो हर तरह के भेदभाव से परे हो। हमारा संविधान एक लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना करता है और राज्य से अपेक्षा करता है कि वह अपनी नीतियां इस तरह बनाए की आम लोगों का जीवनस्तर ऊंचा उठे, सभी को रोजी-रोटी के साधन उपलब्ध हो और सभी को चिकित्सा सुविधा मिले, ताकि सब रोगमुक्त हो। संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के अध्याय-पआंच के अनुच्छेद 38, 39, 40 सहित कई उपबंध इसी तरह के उदात्त उद्देश्यों को प्राप्त करने का आह्वान के राम जी की आरती करते हैं। इन आदर्शों और रामराज्य में भावत: यही बात कही गई है। रामराज्य में कोई विषमता नहीं है, सभी समान है, सभी स्वस्थ्य और प्रहन्न है। श्रीमती सिन्हा ने आगे कहा कि कानून का शासन हमारे संविधान की आधारशिला है। इसमें व्यक्ति कानून के ऊपर नहीं है, अपितु कानून व्यक्ति के ऊपर है। शासन का अधिकार उसकी स्वेच्छाचारिता से नहीं, अपितु संविधान के दिशानिर्देशों से तय होता है। इसमें व्यक्ति को नहीं, अपितु संविधान को अधिक महत्व दिया गया है। इसलिए व्यक्ति की स्वेच्छाचारिता के लिए कोई जगह नहीं है। संविधानसम्मत व्यवस्था से इतर हटकर शासन सूत्र अपने हाथ में लेने की कल्पना भी नहीं की जाती और इसीलिए 14 वर्ष की अवधि के बाद श्रीराम के अयोध्या वापस आने पर सत्ता उन्हें सौंप दी जाती है। यह लोकशाही का सर्वोच्च स्वरूप है, जिसमें कानून का शासन अपने जीवित मानवीय रूप में प्रकट होता है। स्पष्ट है कि श्रीराम के आदर्श और उनके अनुगामियों के आचरण में भारतीय संविधान के कानून के शासन की परिकल्पना आत्मसात कर ली गई है। श्रीराम संवैधानिक नैतिकता के शालाक पुरुष हैं। यह संविधानवाद के आचरण की उच्चतर अवस्था है। नैतिकता का पालन कमजोर व्यक्ति के वस में नहीं होता। इसका पालन नैतिक रूप से बलशाली व्यक्ति ही कर सकता है। श्रीराम श्री दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र हैं। प्रचलित व्यवस्था के अनुसार वही राज्य के उत्तराधिकारी हैं। उनके राजतिलक की घोषणा हो चुकी है। अगले दिन वह राजा बनने वाले हैं, किंतु वचन बाध्यता से जुड़े महाराज दशरथ के निर्देश अनुसार उन्हें वन जाना है और उनके छोटे भाई भारत को राजगद्दी मिलनी है। नैतिकता के उच्च आदर्श का पालन करते हुए वह वनगमन करते हैं और भाई भारत के आग्रह के बावजूद 14 वर्ष पूरे होने से पहले अयोध्या नहीं आते। हमारा संविधान हम सभी से इसी तरह की नैतिकता की अपेक्षा करता है। अयोध्या में श्रीराम के मंदिर के निर्माण के साथ ही हमें उसे रामराज के सपने को वास्तव में साकार करने की दिशा में आगे बढ़ना होगा, जिसका लक्ष्य है सबको न्याय और सब का कल्याण।