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हमारे देश के नेताओं की मानसिकता में सामंतवाद क्यों.?लक्ष्मी सिन्हा

बिहार पटना । समाज सेविका लक्ष्मी सिन्हा ने कहा कि स्वतंत्रता के समय देश में सामंतवादी, अभिजात्य वादी आर जमींदारी व्यवस्था थी। अंग्रेजों से तो हमने मुक्ति पाई, लेकिन उस समय सत्ता पर काबिज होने वाले जनप्रतिनिधि इस समंजवादी मानसिकता से मुक्ति नहीं हो पाए। स्वयं के साथ विशेष व्यवहार किया जाना उन्हें अच्छा लगने लगा। धीरे-धीरे यही संस्कृति राजनीतिक में वीआइपी संस्कृति की वाहक बन गई। लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि और नेता स्वयं को जन सेवक के रूप में पेश करते हैं, लेकिन अधिकतर जनप्रतिनिधि ‘जनस्वामी’का लबादा ओढ़ लेते हैं। यह बात ग्राम पंचायत से लेकर सांसद तक लागू होती है। चुनावों के पूर्व वे जनता के पीछे होते हैं, चुनावों के बाद जनता उनके पीछे-पीछे। जिस ढंग से जनता चुनावों में अपने प्रत्याशियों और पार्टी की विजय का हर्षोल्लास से उत्सव मनाती है, जिस चमक-दमक से प्रशासन नवनिर्वाचित प्रतिनिधियों को तरजीह देता है और जिस प्रकार अखबारों व टीवी चैनलों में उनका बोलबाला दिखाया जाता है, उससे वे अपने को वरिष्ठजन ‘वीआइपी’ समझने लगते हैं। वे अपने को सामान्य नागरिकों से श्रेष्ठ मानने लगते हैं। चाहते हैं कि उन पर समाज, प्रशासन और शासन के सभी लोग विशेष ध्यान दें और उनका काम प्राथमिकता के आधार पर तत्काल किया जाए, चाहे उसके लिए कानूनों की अवहेलना ही क्यों ना करनी पड़े। आखिर ऐसा क्यों ? क्यों वे जनसेवक की छवि का परित्याग कर शासक या जनस्वामी के रूप में व्यवहार करने लगते है ? तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है, नहिं कोई असर जनमा जग माहीं, प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं। लेकिन लोकतंत्र में यदि जनप्रतिनिधियों ने प्रभुता पाई है, तो वह जनता की अमानत है।वे यदि प्रभुता का प्रयोग कर रहे हैं तो इसलिए कि उसके प्रयोग की आज्ञा संप्रभु जनता ने दी है। तो हमारे जनप्रतिनिधियों का आचरण राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में अभिजन जैसा क्यों होता है ? किसी भी लोकतांत्रिक समाज की राजनीतिक को समझने के लिए उसकी राजनीतिक-संस्कृतिको समझना जरूरी है।राजनीतिक-संस्कृति एक पालना जैसा है जिसमें लोकतंत्र जैसा शिशु झूलता है, पुष्पित पल्लवित होता है। ये पालना वस्तर में समाज के दृष्टिकोण विश्वासों और मूल्यों से बनता है। स्वतंत्रता के समय हमारे समाज में समंजवादी व्यवस्था थी, जमींदारी व्यवस्था थी, माई-बाप संस्कृति थी। स्वतंत्रता के जोश में सत्ता के गलियारों में प्रवेश पाने वाले लोगों ने अंग्रेज शासकों से तो स्वतंत्रता प्राप्त कर ली थी, लेकिन उस सामंतवादी मानसिकता और माई-बाप संस्कृति से नहीं। उस संस्कृति को वह भी पसंद करने लगे और धीरे-धीरे उनका व्यवहार देसी-अंग्रेजों जैसा हो गया। हमने राजनीतिक संरचनाओं और प्रक्रियाओं को तो उसके लोकतांत्रिक स्वरूप में स्वीकार किया, लेकिन अपनी अभिजात्यवगीय समंतवादी मानसिकता का परित्याग नहीं किया। यही कारण है कि आज हम और हमारे जनप्रतिनिधि दोनों ही राजनीतिक और प्रशासन में वीआइपी संस्कृति को स्वीकार कर चुके हैं। परिणामस्वरूप, वीआईपी संस्कृति से लबरेज लोगों द्वारा अपनी गाड़ी पर लाल- नीली बत्ती लगाना, सरकारी खर्च पर सुरक्षा कार्ड प्राप्त करना, सार्वजनिक स्थलों पर अभद्र व्यवहार करना, यातायात नियमों की धज्जियां उड़ाना जैसे उनका एकधिकार सा हो गया है। आम नागरिक के पास कोई तरीका नहीं है कि स्थानीय स्तर पर वे इसका विरोध कर सकें। सामाजिक सामंतवाद ने राजनीतिक सामंतवाद का सब रूप ग्रहण कर लिया है जिससे स्वतंत्रता, समानता और समाजिक – न्याय के संवैधानिक संकल्पों की धज्जियां उड़ रही है। हजारों तथाकथित वीआईपी की सुरक्षा पर प्रतिवर्ष जनता का करोड़ों रुपया खर्च हो रहा है और जनता में असमानता व असुरक्षा की भावना घर कर रही है, जिससे लोगों में आक्रोश भी बढ़ता जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में एक निर्णय में सरकार से पूछा था कि वीआईपी या लालबत्ती संस्कृति कब समाप्त होगी? न्यायालय ने इसके लिए मोटर – वाहन कानून में संशोधन कर लाल बत्ती का प्रयोग सीमित करने और उसका उल्लंघन करने वालों को कठोर दंड देने की सिफारिश भी की थी। मोदी सरकार ने 1 मार्च 2017 से राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश सहित सभी वीआइपी गाड़ियों पर लाल बत्ती को प्रतिबंधित कर दिया। केबल एंबुलेंस फायर ब्रिगेड, पुलिस व सेना के वाहन ही नीली बत्ती के प्रयोग हेतु अधिकृत है। अमेरिका, इंग्लैंड और अन्य अनेक विकासित लोकतंत्रों में मैं बड़े से बड़े पदों पर कार्यरत रहते या सेवानिवृत्त होने के बाद भी कोई वीआइपी संस्कृति देखने को नहीं मिलती। अमेरिका में पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा, पूर्व उपराष्ट्रपति और यूरोपीय देशों के राष्ट्रध्यक्ष एवं शासनाध्यक्ष आदि भी सामान्य नागरिकों की तरह अपना जीवन – यापन करते दिखते हैं। आगे श्रीमती सिन्हा ने कहा कि भारत में इस संस्कृति के फलने – फूलने में कुछ गलती तो जनता की भी है। क्यों हम अपने नेताओं और जनप्रतिनिधियों को इतना भाव देते है ? क्यों उनको एहसास नहीं दिलाते कि वे जनसेवक हैं, जनस्वामी नहीं? वीआइपी संस्कृति समाप्त हो इसके लिए जनता को भी पहल करनी पड़ेगी। जनता को अपने जनप्रतिनिधियों से सवाल पूछने होंगे, उनका उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना होगा। राजनीतिक दलों, नेताओं सरकारी अधिकारियों -कर्मचारियों और जनता सभी को सामंतवादी मानसिकता का परित्याग कर लोकतांत्रिक संस्कृति के अनुरूप अपने को डालना पड़ेगा तभी भारतीय लोकतंत्र के संवैधानिक संकल्प साकार होंगे।

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