मज़दूर
नित्य कमाता रहता है फिर भी है मजबूर,
इसी श्रम पुजारी को कहते हैं मज़दूरl भूख-प्यास न सर्दी-गर्मी कर इसे परेशान,
पेट भरे जब बच्चों का तो आनंद ले भरपूर।
शोषण करते धन वाले ना करते सोच विचार,
इसीलिए तो सारे सपने हो जाते हैं चूर।
टूटी खटिया,टूटा छप्पर फिर भी है खुशहाल,
मानवता की इस मूरत को ना हो कभी गुरूर।
मिले काम ना एक दिन तो चूल्हा रहे उदास,
फिर भी उसकी आदत देखो न बनता वह क्रूर।
सहता रहे सभी कष्टों को कुछ ना कहे किसी से,
भाग्य और विधाता का ही दिखता उसे कसूर।
डॉ. ग़ुलाम फ़रीद साबरी
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ (उo प्रo)