बसते शहर उजड़ते गांव…
सौरव कुमार
जादूगोड़ा । गांव के हालात बहुत ख़राब हो रहे हैं बसते शहर, उजड़ते गांव।
यही हाल रहा तो हमें गांव भी अपने बच्चों को किसी म्यूजिम मे ले जाकर दिखाना पड़ेगा।
जातिवाद क्षेत्रवाद राजनीति सामंती व्यवस्था एवम बेरोजगारी से परेशान होकर लोग गांव से पलायन कर रहे हैं। आज हर चौथा रिटायर होने वाला कर्मचारी दुकान खोल ले रहा है, विशेष कर जनरल स्टोर किराना की,भारतीय संस्कृति की पहचान ग्रामीण क्षेत्र से ही होती है परंतु वर्तमान में धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति समाप्त होती जा रही है जिसको बचाया जाना बहुत ही आवश्यक है दिन पर दिन शहर जा रहे हैं, लोग मजदूरी करने के लिए बढ़ोतरी होती जा रही है लगता है की बहुत ज्यादा लोग शहर चले जाएंगे उसकी भरपाई करना आसान नहीं है, जैसे हवा पानी पेड़ तालाब कुआ बावड़ी बगीचे कच्ची सड़के बाग मिट्टी के घर और कुछ पुरानी हस्तकला शिल्प कला धीरे-धीरे ध्वस्त किया जा रहा है अर्थात निष्क्रिय हो रहा है हम पश्चिमी जगत की धारा पर जीना चाहते हैं जबकि भारत उष्णकटिबंधीय और शुष्क क्षेत्र से घिरा हुआ है आने वाली पीढ़ी आम महुआ पीपल पाकाड़ बरगद नीम जमून गूलर बड़हर ऐसे कई अन्य पेड़ देख ही नहीं पाएगी वह क्या जानेगी आखिर गांव क्या होता है गांव में हो रहे विकास को अगर ध्यान से देखा जाए वह पुरानी विरासत को ध्वस्त कर रहा है और यह चिंता जनक विषय है छोटे दूकानदार से लोग समान न लेकर आनलाईन समान लेते हैं इस कारण दूकान बंद हो रही है।