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मुझे हरा सके …

मुझे हरा सके
किसी में इतनी
हिम्मत न थी।
जीत पाया कहा मैं
सच कहूँ मेरी भी
हार न थी।
तुझसे मेरी जहाँ
शुरू हुई थी
तुम पे ही किस्सा
ख़त्म हुई
हैं गुरूर मुझे कि
व़फा तो दाग़दार न थी

तुम्हारे साथ चलना
तो चाहता था
तलाश मेरी जिंदगी
की हार न थी
वादों को हम
भुला ना पायें
तेरी मोहब्बत को
अपना भी न पाये
और आंखों को तेरे
सिवा कोई
इन्तिज़ार न थी!

ज़माने ने खेला
जज्बातों से
मैने निभाया
यूँ रस्मे व़फा
मेरा प्यार वो था कि
नफ़रत भी
नागवार न थी
उलझनों की बेडियां
थी पाँव में
मोहब्बत की कोई
शाम मेरे नाम न थी।

राजीव रंजन कवि
बेगलुर

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