न मैं जानू आरती बंधन…
ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दर्द न जाने कोय।
न मैं जानूं आरती-वंदन, न पूजा की रीत।।
लिए री मैंने दो नयनों के दीपक लिए संजोय।
ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय।।
मीरा के ये शब्द बड़े प्यारे हैं। प्रेम निश्चित ही दीवाना है। इसलिए चतुर वंचित रह जाते हैं प्रेम से। उन नासमझों को, उन नादानों को पता ही नहीं चलता कि कितनी बड़ी संपदा गंवा बैठे! वे तो अपनी अकड़ में ही रह जाते हैं समझ की अकड़। वे तो अपनी बुद्धिमानी में ही घिरे रह जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि जीवन में एक और शराब भी थी, जिसे पीते तो अमृत का अनुभव होता, कि एक और रसधार भी थी जो पास ही बहती थी, जरा आंख भीतर मोड़ने की जरूरत थी।
प्रेम संसार की समझ में आता नहीं आ सकता भी नहीं आ जाए तो संसार स्वर्ग न हो जाए! संसार की समझ में घृणा आ जाती है, प्रेम नहीं आता युद्ध आ जाता है, शांति नहीं आती विज्ञान आ जाता है, धर्म नहीं आता। जो बाहर है, उसे तो संसार समझ लेता है लेकिन जो भीतर है और असली है जो प्राणों का प्राण है वह संसार की पकड़ से छूट जाता है। दृश्य तो स्थूल है। अदृश्य ही सूषम है और वही है आधार। संसार तो दृश्य पर अटका होता है। प्रेम की आंख अदृश्य को देखने लगती है। प्रेम तुम्हारे भीतर एक तीसरी आंख को खोल देता है। और स्वभावतः जिनकी वैसी आंख नहीं खुली है वे तुम्हें न समझ पाएंगे वे तुम्हें पागल कहेंगे। वे हंसेंगे, मुस्कुराएंगे। वे कहेंगे कि गए तुम काम से।
और प्रेम का दर्द बड़ा मीठा दर्द है तुमने दर्द तो बहुत देखे लेकिन प्रेम का मिठास से भरा हुआ दर्द नहीं देखा तो फिर कुछ भी नहीं देखा। आए खाली हाथ गए खाली हाथ।
मीरा ठीक कहती है न मैं जानूं आरती-वंदन न पूजा की रीत।
प्रेम मानता ही नहीं औपचारिकताओं में। औपचारिकताएं तो वे लोग करते हैं पूरी जिनके जीवन में प्रेम नहीं है। वे ही जाते हैं चर्च, मंदिर जिनके जीवन में प्रेम नहीं है।
प्रेम तो मर्यादा-मुक्त है। प्रेम सीमाएं नहीं मानता।
आलेख : अजय कुमार सिंह