बिहार (पटना) समाजसेविका श्रीमती लक्ष्मी सिन्हा ने कहा कि भारत विश्व में सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था बना हुआ है, लेकिन इसके साथ ही कर्ज का बोझ भी बढ़ रहा है। हाल में आई अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की रिपोर्ट के अनुसार देश का कुल कर्ज चालू वित्त वर्ष की जुलाई-सितंबर तिमाही में बढ़कर 2.47 लाख करोड़ डालर यानी 205 लाख करोड रुपए पर पहुंच गया इसमें केंद्र का हिस्सा 161 लाख करोड़ और राज्यों का 44 लाख करोड रुपए हैं। इस हिसाब से हर भारतीय पर एक लाख40 हजार रुपए का कर्ज है। वर्ष 2014 में केंद्र सरकार पर कुल देश और विदेश, दोनों तरह का कर्ज़ 55 लाख करोड रुपए थे। इस हिसाब से देखे तो पिछले 9 साल में भारत सरकार पर अच्छा- खासा कर्ज बढ़ा है। रिपोर्ट में राजकोषीय घाटा का ब्योरा भी दिया गया है, जो अभी 9.25 लाख करोड रुपए हैं और यह कुल कर्ज का 4. 51 प्रतिशत है। श्रीमती लक्ष्मी सिन्हा ने आगे कहा कि वास्तव में सरकार की आमदनी और खर्च ही कर्ज को निर्धारित करते हैं। अगर खर्चा आमदनी से ज्यादा है तो सरकार को कर्ज लेना ही पड़ेगा। सब्सिडी एवं विभिन्न रेवड़ी योजनाओं पर उधार लेकर किए गए खर्च पर सरकार को कोई रिटर्न भी नहीं मिलता है। रेवाड़ी बांटने के लिए सरकारों द्वारा जो इतना कर्ज लिया जा रहा है, इसका बोझ न केवल हम पर है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी यह चुकाना होगा। बजट का एक हिस्सा इन कर्जो के ब्याज पर चला जा रहा है। देश का दुर्भाग्य है कि सरकारें कर्ज से चल रही है। अर्थव्यवस्था में उत्पादन एवं रोजगार बढ़ाने की तुलना में विभिन्न रेवड़ी योजनाओं को प्राथमिकता दी जा रही है। यदि रोजगार एवं उत्पादन नहीं बढ़ेगा और आय असमानता कम नहीं होगी तो कर्ज तो लेना ही होगा। विडंबना यह भी है कि अनाज के मामले में देश के आत्मनिर्भर हो जाने के पांच दशक बाद भी देश के दो तिहाई आबादी सरकार की ओर से दिए जा रहे मुक्त अनाज पर निर्भर है। सरकारों को समझना होगा कि आर्थिक तौर पर पिछड़े जन किसी राष्ट्र के ऊपर बोझ होते हैं, जबकि आत्मनिर्भर नागरिक उसके लिए संपत्ति होते हैं। मुफ्त की योजनाओं की राशि को रोजगार के अवसर पैदा करने, कौशल बढ़ाने और इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास पर खर्च करने की जरूरत है। तभी लोगों का सामाजिक उत्थान और प्रगति होगी और देश आत्मनिर्भर बन सकेगा।