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टूटते पहाड़


मन घबरा रहा है
पर्वतों पर लग गए डायनामाइट देख
फैलती जा रही है सर्पिणी सी काली नदी
कह रहे हैं उन्हें राहे
राह नही आग का दरिया है
पर्यावरण को झुलसाने वाला
एक पर्वत नहीं, न जाने कितने नष्ट हुए है
देखो ये छोटे हिरन
हाफते कांपते बेघर बेदर
प्यासे भ्रम रहे है
कहा देखोगे फिर इन्हें
नहीं महकेगी अब कहीं कस्तूरी
नहीं फुदकेंगे मृगछौने
ये वृक्ष धराशायी नहीं हुए
रूठ गई है ऋतुए
वृक्षों की शाख पर बैठ बैठकर
गाती थी गीत बसन्ती के
कोकिल गूजती थी अमराई में
कौन फुदकेंगे इनकी फुनगी पर
सच !
तुमने पर्वत ही नहीं, एक प्रहरी को उजाड़ा है
जो रोकता था अधड़ झंझावत
बदल देता है उन्हें भीगी फुहार मे
अब नहीं बनेगा वह ऋतु चक्र
बस अब होगी ये सीधी सपाट राहे
जो यहाँ से अपनी ताप संताप
सब तुम्हारे घरों में बरसायेगे
और वे पहाड़ ज्वालामुखी बनकर
दहकेंगे तुम्हारे मन में, तुम्हारे घरो में
तुम्हारे चारो ओर।

ममता जैन पुणे महाराष्ट्र

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