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जिस मंत्र में चेतना नहीं है वह केवल शब्दों का समूह मात्र है, मंत्र चैतन्य युक्त होना चाहिए

जप क्रिया के लिये, ध्यान क्रिया के लिये और सभी आध्यात्मिक साधना के लिये सिद्ध मन्त्र होना चाहिये, चैतन्य युक्त मन्त्र होना चाहिये

जमशेदपुर।
तीन दिवसीय प्रथम संभागीय सेमिनार का आयोजन गदरा आनंद मार्ग जागृति में किया गया। सेमिनार के दूसरे दिन का शुभारंभ सेमिनार के मुख्य प्रशिक्षक आचार्य संपूर्णानंद अवधूत के द्वारा, आनन्द मार्ग के संस्थापक श्री श्री आनन्द मूर्ति जी के प्रतिकृति पर माल्यार्पण कर किया गया। मुख्य प्रशिक्षक ने अपने व्याख्यान में
मंत्र चैतन्य विषय पर बोलते हुए कहा कि कोई मंत्र जव भाव में सिद्ध हो जाता है तो उसे मंत्र चैतन्य कहते हैं। आनन्द मार्ग के प्रवर्तक महासम्भूति श्री श्री आनन्द मूर्ति जी ने इष्ट मंत्र, गुरु मंत्र, कीर्तन मंत्र,बीज मंत्र आदि दिया है।हर शब्द मंत्र नहीं होता।जिस शब्द के मनन से मन का कल्याण हो जाय उसे ही मंत्र कहते हैं।


मन्त्र क्या है ? मन्त्र है विशेष शब्दों का समाहार। प्रत्येक शब्द मन्त्र नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है – “मननात् तारयेत् यस्तु सः मन्त्र: परिकीर्तित:।”

अर्थात् जिसके मनन करने से, साधना करने से मुक्ति मोक्ष की प्राप्ति होती है। मुक्ति मोक्ष हेतु प्रयुक्त मन्त्र को चेतना युक्त होना चाहिए। जब महाकौल किसी मन्त्र के द्वारा कुल कुंडलिनी को मूलाधार चक्र से उपर उठाकर शंभूलिंग तक ले जाते हैं तो यह पुरश्चरण कहलाती है और मन्त्र में चैतन्य शक्ति आ जाती है, यही मन्त्र चैतन्य है और ऐसे मन्त्र को सिद्ध मन्त्र कहते हैं। यह कार्य केवल महाकौल ही कर सकते हैं। सदा शिव महाकौल थे।
जप क्रिया के लिये, ध्यान क्रिया के लिये और सभी आध्यात्मिक साधना के लिये सिद्ध मन्त्र होना चाहिये, चैतन्य युक्त मन्त्र होना चाहिये नहीं तो “चैतन्य रहिताः मन्त्राः प्रोक्ता वर्णांस्तु केवला” अन्यथा वह केवल शब्दों का समूह मात्र है। उसको हजारों, लाखों, करोड़ों बार जप कर ले, उससे कोई फल नहीं मिलेगा।
मन्त्र में दो भाग होते हैं- मन्त्राघात और मन्त्र चैतन्य । जब किसी आध्यात्मिक साधक को सिद्ध मन्त्र दिया जाता है, तो उसके प्रभाव से सुषुप्त कुल कुण्डलिनी पर चोट पड़ती है। जैसे किसी सोते हुए मनुष्य के शरीर पर जब आघात करते हैं तो वह जग जायगा। ऐसा ही हाल कुल कुण्डलिनी के साथ होता है।
आध्यात्मिक साधना के लिए दीक्षा नितांत आवश्यक है। दीक्षा के बारे में कहा गया है-
दीपज्ञानम् ततोद्यात् कुर्यात् पापक्षयं ततः ।
तस्मात् दीक्षेति सा प्रोक्ता सर्व तन्त्रस्य सम्मता ।।‘
दीपज्ञान का पहला अक्षर है ‘दी’ और पापक्षयं का पहला अक्षर है ‘क्ष’। इन दोनों से मिलकर ‘दीक्ष’ बना और स्त्रीलिंग में बना दीक्षा। तो ‘दीक्षा’ का मतलब हुआा बह पुरश्चरण किया हुआ मन्त्र देना जो द्योतना उत्पन्न करके रास्ता दिखलाये और व्यक्ति के संग्रहित पापों को नष्ट करने का कारण बने । तो यह है दीक्षा का सही अर्थ । आध्यात्मिक उन्नति के लिए दीक्षा अत्यन्त आवश्यक है।
दीक्षा पाकर मनुष्य आध्यात्मिक साधना करे। सहज शब्दों में हम कहें, साधना है – हम लोग जहां से आये हैं, वही लौट जाना होगा। हम लोग सभी परम पुरुष से आए हैं। जो विश्व के प्राण केंद्र है, हम लोग को वहीं लौटना होगा और लौटने के लिए तीन तत्व याद रखना होगा। वह है श्रवण, मनन और निदिध्यासन।
श्रवण माने सुनना। हरि कथा सुनना, कीर्तन सुनना, भजन सुनना।
मनन का अर्थ है केवल भगवान के विषय में चिंतन करना और कुछ नहीं। उनका मनन करने से अहंकार समाप्त होगा और उनके प्रति समर्पण के बाद भगवान दृष्ट होंगे। जब तक हम उनको अहं का दान नहीं करेंगे तब तक वह हमें मिलेंगे नहीं।
निदिध्यासन है मन की सारी वृतियों को एक बिंदु पर केंद्रीभूत करना और उसको परम पुरुष के चरणों में अर्पित करना ।
और कहना- हे भगवान सुना है कि बड़ी-बड़ी भक्तों ने तुम्हारे मन को, ह्रदय को चुरा लिया है। चिन्ता करने की बात नहीं है, मैं तुम्हें अपना मन देता हूं तुम उसे ग्रहण कर लो। मनन, श्रवण और निदिध्यासन के माध्यम से मंत्र चैतन्य को आत्मसात करते हुए
मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य को हासिल कर पायेगा।

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