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चुनौतियों भरी तीसरी पारी, नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू पर देना होगा विशेष ध्यान


जमशेदपुर । भारतीय राजनीति में कुछ अपवादों को छोड़कर वामपंथ केंद्रित सरकारों का वर्चस्व रहा लेकिन 2014 से दक्षिणपंथी सरकारों का दबदबा बढ़ा । इस विचारधारामूलक संक्रमण के कारण राजनीति में उथलपुथल है और विपक्ष को लोकतंत्र और संविधान पर खतरा दिखाई देता है लेकिन भाजपा अभी भी मजबूत स्थिति बनाए रख सकती है । इसमें उसका संगठन जनसंपर्क कुशल चुनाव एवं बूथ प्रबंधन तथा कार्यकर्ताओं की निष्ठा उत्तरदायी होगी ।

लोकसभा चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और राजग को बहुमत प्राप्त हुआ । जवाहरलाल नेहरू के बाद नरेन्द्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं, जो तीसरी बार सत्ता में आने जा रहे हैं । वह चार सौ पार के लक्ष्य से काफी पीछे रह गए, पर उन्होंने जबरदस्त चुनाव-प्रचार किया और इसी कारण भाजपा ने ओडिशा, मध्य प्रदेश, हिमाचल, दिल्ली, बिहार, त्रिपुरा और असम आदि में बेहतर प्रदर्शन किया, मगर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और बंगाल जैसे कुछ बड़े राज्यों में उसका प्रदर्शन निराशाजनक रहा । 2014 के बाद पहली बार भाजपा को अपने बलबूते पूर्ण बहुमत यानी 272 सीटें नहीं मिलीं। इसके बाद भी यह नहीं भूलना चाहिए कि मोदी सरकार को दस वर्ष के सत्ताविरोधी रुझान का सामना करना पड़ रहा था। यह तय है कि भाजपा को घटक दलों पर कुछ ज्यादा ही आश्रित रहना पड़ेगा ।

चुनाव परिणामों ने भारतीय लोकतंत्र को विजयी बनाया है। वैश्विक स्तर पर और विपक्ष द्वारा एक नैरेटिव गढ़ा गया था कि भारत में लोकतंत्र खत्म हो गया है। विपक्षी गठबंधन ने तो चुनाव आयोग को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। अनेक सवाल ईवीएम पर उठाए गए, लेकिन चुनाव परिणामों ने उन सभी पर विराम लगा दिया। विपक्षी दलों का प्रदर्शन शानदार रहा और यदि वे संसद में एकजुट रह सके तो भारतीय लोकतंत्र को सशक्त विपक्ष मिलेगा।

मोदी सरकार का तीसरी बार सत्ता में आना इसका संकेत है कि जनता ने विपक्ष के बजाय उसकी नीतियों को स्वीकृति दी। नतीजे भाजपा को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान करते हैं, क्योंकि उसने दक्षिण में कर्नाटक के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी अपनी पैठ बनाई। नतीजे विपक्ष की कामयाबी दर्शाने के बाद भी उसकी नकारात्मक राजनीति एवं आरोपात्मक मोदी-विरोधी विमर्श को खारिज करते हैं। वास्तव में ये नतीजे भारतीय लोकतंत्र के सशक्त होने का प्रमाण हैं, जिसके बारे में विपक्ष द्वारा भ्रांतियां फैलाई गईं। वहीं, भाजपा के कमजोर प्रदर्शन के बाद भी मोदी की ‘त्रिशूल रणनीति’ काम आई, जो सुशासन एवं लोक-कल्याणकारी विकास, समावेशी राजनीति तथा जातीय-अस्मिता को वर्ग-राजनीति से संबद्ध करने से बनी है। इसने भारतीय राजनीति के व्याकरण को बदल डाला। दस वर्षों में मोदी की जन-कल्याणकारी योजनाओं का लाभ जनता को बिना भेदभाव मिला।

भारतीय राजनीति शुरू से ही जातीय अस्मिता के मकड़जाल में फंसी रही, लेकिन मोदी ने उसे वर्ग राजनीति से जोड़ा। उन्होंने महिलाओं, युवाओं, सीमांत किसानों और गरीबों-चार वर्गों का पुनर्सृजन किया और उन्हें जातीय-अस्मिता से संबद्ध कर सामाजिक-संरचना में वर्ग चेतना का संचार किया। आज देश ‘भाजपा-सिस्टम’ की ओर जा रहा है, ठीक वैसे ही जैसे स्वतंत्रता बाद ‘कांग्रेस-सिस्टम’ की ओर गया था, जिसमें कांग्रेस की सामाजिक संरचना का विस्तार सभी राज्यों में हो गया था, लेकिन इस बार विपक्ष के विमर्श से उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में पिछड़ी जातियों और दलितों में भी आरक्षण और संविधान को लेकर एक शंका पैदा हो गई और वे भाजपा से दूर हो गए।

चार सौ पार नारे ने भी इस भय को हवा दी कि इतनी बड़ी संख्या में सीटें जीतकर भाजपा कहीं संविधान न बदल दे। भाजपा और मोदी उन्हें यह नहीं समझा सके कि आखिर चार सौ से ज्यादा सीटें क्यों चाहिए? यह मनोवैज्ञानिक दबाव मोदी की तमाम लोक-कल्याणकारी योजनाओं पर भारी पड़ा। मोदी सरकार द्वारा 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने का अर्थ विपक्ष ने यह बताया कि देश में बहुत गरीबी है, जबकि 80 करोड़ लोग जान रहे थे कि उनके घर कोई भूखा नहीं सोएगा।

मोदी सरकार ने आयुष्मान से स्वास्थ्य सुरक्षा, नल से जल द्वारा जल सुरक्षा, फसल बीमा योजना से फसलों की सुरक्षा, जनधन योजना, किसान सम्मान निधि और डीबीटी से वित्तीय सुरक्षा, स्वच्छ भारत योजना से महिला सुरक्षा और अन्य योजनाओं से जो ‘सुरक्षा कवच’ गरीबों के लिए निर्मित किया, वह इस मनोवैज्ञानिक भय के सामने उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कुछ काम न आया कि यह सरकार फिर सत्ता में आई तो आरक्षण खतरे में पड़ सकता है।

दक्षिणी राज्यों तेलंगाना, आंध्र में तो भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा, लेकिन राजस्थान में अंतर्कलह और टिकट आवंटन के कारण भितरघात से पार्टी का प्रदर्शन उतना अच्छा नहीं रहा। महाराष्ट्र में भी भाजपा के प्रयोग अपना प्रभाव न छोड़ सके। सबसे चौंकाने वाले परिणाम बंगाल के रहे, जहां ममता बनर्जी ने वर्चस्व बनाए रखा और भाजपा अपना जनाधार न बढ़ा सकी। इसके विपरीत ओडिशा विधानसभा और लोकसभा में भाजपा का शानदार प्रदर्शन रहा और लंबे समय बाद नवीन पटनायक को विस्थापित कर वह अपनी सरकार बनाएगी। आंध्र में भी चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी और जनसेना से गठबंधन कर भाजपा ने लोकसभा और विधानसभा में शानदार प्रदर्शन किया।

उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने मिलकर उम्दा प्रदर्शन किया। उन्होंने न केवल अपनी सीटें अप्रत्याशित रूप से बढ़ाईं, बल्कि अपना जनाधार भी बढ़ाया। उन्होंने 2017 वाली दो-लड़कों की छवि को तोड़ा और जनता का विश्वास हासिल किया। यह आगामी विधानसभा चुनावों में काफी प्रभावी हो सकता है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 हटने के बाद जनता की उत्साहपूर्ण सहभागिता और उमर अब्दुल्ला एवं महबूबा मुफ्ती का हारना लोकतंत्र के लिए सकारात्मक संदेश है, लेकिन पंजाब में खालिस्तान समर्थकों का चुनाव जीतना शुभ संकेत नहीं।

भारतीय राजनीति में कुछ अपवादों को छोड़कर वामपंथ केंद्रित सरकारों का वर्चस्व रहा, लेकिन 2014 से दक्षिणपंथी सरकारों का दबदबा बढ़ा । इस विचारधारामूलक संक्रमण के कारण राजनीति में उथलपुथल है और विपक्ष को लोकतंत्र और संविधान पर खतरा दिखाई देता है, लेकिन भाजपा अभी भी मजबूत स्थिति बनाए रख सकती है। इसमें उसका संगठन, जनसंपर्क, कुशल चुनाव एवं बूथ प्रबंधन तथा कार्यकर्ताओं की निष्ठा उत्तरदायी होगी। चूंकि तीसरी बार सत्ता में आने जा रहे मोदी के सामने चुनौतियां अधिक होंगी, इसलिए उन्हें न केवल व्यक्तिगत समर्पण, वरन अपने सांसदों और विधायकों के जनसंपर्क और जनसमर्पण को सुनिश्चित करना पड़ेगा । अबकी बार मोदी को राजग के घटक दलों-खासतौर से नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू पर विशेष ध्यान देना होगा, जिससे सरकार में किसी प्रकार की अस्थिरता न आए ।

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