FeaturedJamshedpurJharkhandNational

किसी एकपक्षीयता से निपटने के लिए पुरुष आयोग बनाना बहुत आवश्यक: लक्ष्मी सिन्हा

बिहार पटना : राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी की प्रदेश संगठन सचिव सह प्रदेश मीडिया प्रभारी महिला प्रकोष्ठ श्रीमती लक्ष्मी सिन्हा ने कहा की क्या किसी भी समाज में ऐसा कभी संभव है कि सौ प्रतिशत पुरुष दोषी हो और सौ प्रतिशत स्त्रियां निर्दोष, जैसे ही ये बातें बहस में आती है, बहुत आसानी से महिला विरोधी होने का ठप्पा लगा दिया जाता है। अगर न्याय वाकई सबकी सुनती है, सबकी रक्षा करती है तो आखिर उसे पुरुषों की क्यों नहीं सुननी चाहिए? क्या वे इस देश के नागरिक नहीं, मतदाता नहीं है? परिवार को चलाने में यदि मां की भूमिका होती है तो पुरुष भी तो रात-दिन मेहनत करते हैं। वे भी तो परिवार की जरूरतों के लिए कोई कोर-कसर शेष नहीं रखते। ऐसे में उन्हें सिर्फ खलनायक की श्रेणी में रखना बेहद अनुचित और निंदनीय है। अपने देश की मुसीबत यही है कि यह कुछ दबाव-समूहों के प्रभाव में आकर कई बार ऐसे कानून बना दिए जाते हैं, जहां दूसरे पक्ष की सुनवाई ही नहीं होती। सुनवाई तो क्या कोई मानने के लिए भी तैयार नहीं होते कि पुरुषों की भी कोई दिक्कतें होती होगी। जबकि वे भी गरीबी,बेरोजगारी,साधनहीनता, आपसी कलह और पारिवारिक विवाद झेलते हैं। ऐसे में वे जाएं तो जाएं कहां? असें से पुरुष आयोग बनाने की मांग की जा रही हैं। और की भी क्यों न जाए, क्योंकि लोकतंत्र का यही नियम है कि प्रत्येक को समान रूप से न्याय मिलना चाहिए। हम ऐसा क्यों मानकर बैठ गए हैं कि अन्याय शरीफ एक पक्ष झेल रहा है? अगर सारी स्त्रियां देवी नहीं होती तो सारे पुरुष भी दानव नहीं होते। श्रीमती सिन्हा ने कहा कि महिलाएं तो जैसे ही किसी प्रकरण में फंसती हैं, किसी न किसी ऐसे कानून का सहारा ले लेती हैं, जहां पुरुषों की कोई सुनवाई ही नहीं होती आखिर क्यों? बिना किसी जांच-परख पुरुषों को दोषी मान लिया जाता है। कानून की यह कैसी प्रक्रिया है, जहां दूसरे पक्ष को अपनी बात रखने और अपने को सही साबित करने का अवसर ही प्रदान न किया जाए? ध्यान से देखे तो कानून की जद में सिर्फ पति, ब्वायफ़्रेंड और उसके घर वाले होते हैं। लड़कियों के घर वालों की बातों को सही मान लिया जाता है। रिश्ते में ननद लगने वाली लड़कियों के परिवारों में सिर्फ इसलिए आफत आ जाती है कि भाभियां न केवल उनका, बल्कि उनके पतियों का नाम भी दोषियों में लिखवा देती हैं। अपने यहां के लैंगिक कानून सिर्फ और सिर्फ बहू और युवा स्त्रियों के पक्ष में है। इसीलिए 80-80 साल के बुजुर्ग घरेलू हिंसा और दहेज प्रताड़ना के मामले में पकड़ लिए जाते हैं। लड़कों पर आरोप साबित न भी हो पाए तो भी उनका जीवन बर्बाद हो जाता है। बषौं कोर्ट- कचहरी चक्कर काटते रहते हैं। कुछ की नौकरी चली जाती है और समाज मैं बदनामी अलग से होती है। श्रीमती लक्ष्मी सिन्हा ने आगे कहा कि ऐसी एकपक्षीयता से निपटने के लिए पुरुष आयोग बनना बहुत आवश्यक हो गया है। वैसे भी अब अपने यहां हर एक की समस्याओं के निपटारा के लिए आयोग बना दिए जाते हैं तो पुरुष के लिए ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? इसमें कुछ गलत भी नहीं है। पुरुष आयोग हो तो पुरुषों को भी अपनी बात करने का अवसर मिले। वे भी न्याय पा सके। अपने यहां जैसे लैंगिक कानून है, उसमें बदलाव की भी सख्त आवश्यकता है। कानून हर पक्ष की बात सुने और जो दोषी हो, चाहे स्त्री या पुरुष उन्हें सजा दें। तभी कानून का महत्व भी सिद्ध हो सकता है और वह सभी को न्याय देने वाला बन सकता है। सत्य बोलना अथवा लिखना अगर बगावत है तो मैं बागी हूं।

Related Articles

Back to top button