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एक ग़ज़ल


नया कोई सूरज उगाने का पल है कि पहचान कोई बनाने का पल है
बहुत रह लिये हैं अँधेरे में छिपकर
चिराग़ों को फिर से जलानें का पल है
यहां कोई अपना नहीं है किसी का
हकीकत ये सबको बताने का पल है
समन्दर से लहरें सदा जुझती हैं कि लहरों पे राहें बनाने का पल है
कि देखो ये कलियां भी मुरझा रहीं हैं
नया कोई गुलशन बुलाने का पल है
सलीका नहीं है कि महसूस कर लें खुदा का असर अब दिखाने का पल है
भला कब तलक ये बिछड़ कर रहेंगे
फलक को जमीं से मिलाने का पल है

डा रीना मिश्रा
देवरिया उत्तर प्रदेश

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