अनूढ़ा
हाय हर्ष क्यों समझ न पाया
अनूढा अभिरत अभिलाषी को!
कवि किशन भी समझ न पाया
धधकती धरा की राशि को!
कर सिंगार रत्ना रिझाती
जैसे जलज जलराशि को।
रजनीगंधा खिल मुस्काती
रीझ-रिझाती पूरनवासी को।।
घूम-मेघ भी समझ न पाया
मरु मरीचिका प्यासी को!
सर-सिंगार केसर बनी काया
माया, मधुप मिला न नाशी2 को।।
*अनूढ़ा*–अविवाहित प्रेमिका। *नाशी*–नश्वर शरीर को।
स्वरचित रचना आचार्य दिग्विजय सिंह तोमर अम्बिकापुर। 07 अक्टूबर 2021.