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अनपढ़ी किताब


प्यार समाया पोर-पोर में
लगे होने अंकुरित ख्वाब
दोनों ने किया गठबंधन
रिश्ता निभाया कई साल

जीवन में कई मोड़ से गुजरे
अच्छे-बुरे साथ-साथ
अपने-पराये सभी से मिले
लेकर हाथों-में-हाथ

एक दूजे के पूरक बने  
दो जिस्म एक जान
पर शायद कहीं रह गई थी
एक अनछुई, अनपढ़ी किताब

तभी चली अहंकारी आँधी 
छुप गए चाँद-तारे नायाब
हर कोशिश हुई पराजित
फिर तन्हाई हुई कामयाब

काश, दोनों ने पढ़ ली होती
एक दूजे की अनपढ़ी किताब
बिखरते ही अंक में समेट लेते
उनका रिश्ता होता लाजबाब!

संतोष भाऊवाला
बैंगलोर
कर्नाटक

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