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सृष्टि पिता भगवान शिव ने कहा है “आत्म मोक्षार्थम जगत हिताय च” के पथ पर चलकर ही मनुष्य परम पद प्राप्त सकता है

जमशेदपुर। तीन दिवसीय प्रथम संभागीय सेमिनार का आयोजन गदरा आनंद मार्ग में किया गया। सेमिनार के प्रथम दिन का शुभारंभ सेमिनार के मुख्य प्रशिक्षक आचार्य संपूर्णानंद अवधूत के द्वारा, आनन्द मार्ग के संस्थापक श्री श्री आनन्द मूर्ति जी के प्रतिकृति पर माल्यार्पण कर किया गया। मुख्य प्रशिक्षक ने अपने व्याख्यान में “शिवोपदेश” विषय पर बोलते हुए कहा कि मनुष्य की शक्ल में इस धरती पर चार मानसिकता वाले लोग हैं।जीव कोटी,मानव कोटी, ईश्वर कोटी और ब्रह्म कोटी के मनुष्य। इसी सोच के अनुसार उनका कर्म करने का सोच बनता है। हर जीव को ब्रह्म का चिन्तन करते करते एक दिन ब्रह्म कोटी में प्रतिष्ठित होना है। ब्रह्म कोटी में जीव को प्रतिष्ठित करने के लिए ही अब तक धरती पर तीन वार महासम्भूति का आगमन हुआ है।जिसमें आज से साढ़े सात हजार वर्ष पूर्व सदाशिव के रूप में, साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण के रुप में और वर्तमान में श्री श्री आनन्द मूर्ति जी के रुप में।

भुक्ति प्रधान सुधीर आनंद ने बताया कि त्रिदिवसीय कार्यक्रम में मुख्य रूप से तीन विषय 1, शिवोपदेश 2, मंत्र चैतन्य और 3, आर्थिक गतिशीलता विषय की व्याख्या होगी।
“शिवोपदेश ” विषय पर आचार्य जी ने कहा कि
भगवान सदाशिव इस धरा पर आज से 7000 वर्ष पूर्व आए।
उस समय आर्यों का आगमन चल रहा था। आर्य- अनार्य का संघर्ष का दौर था। उनके बीच व्याप्त विषमता को दूर कर एक सूत्र में बांधने के लिए भगवान शिव ने समाज को बहुत कुछ दिया। जैसे विवाह पद्धति, संगीत विद्या, ताण्डव नृत्य, स्वर विज्ञान आदि। साथ ही साथ लोगों को उन्होंने ज्ञान की शिक्षा दी।
क्रोध से बचें। क्योंकि क्रोध शरीर को क्षतिग्रस्त कर देता है। मन को स्तंभित कर देता है। आत्मिक प्रगति के पथ में कांटें बिछा देता है।अतः भगवान शिव ने कहा-
क्रोध एवं महान शत्रु।
मनुष्य लोभ वृत्ति के कारण बहुत सारा पाप कर्म कर डालता है। अतः उन्होंने स्पष्ट रूप में कहा – लोभ: पापस्य हेतुभूत:।
मनुष्य को सत्य का आश्रय लेना चाहिए लेकिन मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए मिथ्या चारी बन जाता है। इसी कारण से मनुष्य को सावधान करते हुए भगवान शिव ने कहा, मिथ्यावादी सदा दु:खी।
भगवान शिव उपदेश देते हुए कहते हैं कि आत्मज्ञान ही सही ज्ञान है। ज्ञान शब्द प्राचीन संस्कृत के जिज्ञा धातु से बना हुआ है। लौकिक विचार से जिन सभी वस्तुओं को ज्ञान कहकर पुकारते हैं, वे ज्ञान नहीं, मात्र ज्ञान का अवभास है। इसको साधारणत: विद्या या वेदन किया कहकर पुकारा जाता है, यह ज्ञान नहीं है और इसके लिए विद धातु का व्यवहार की संगत है।
विद्या के दो प्रकार है- परा विद्या और अपरा विद्या। परा विद्या जो मनुष्य को आत्म मोक्षार्थं के पथ पर ले जाए।
और मोक्ष के द्वार तक पहुंचा दे। और अपरा विद्या
जागतिक कर्म के माध्यम से जगत हिताय के काम में आता है। इसलिए भगवान शिव ने कहा है आत्म मोक्षार्थम जगत हिताय च । अपरा विद्या की चर्चा जरूरी है। इसके अंतर्गत इतिहास, भूगोल, राजनीति, मनोविज्ञान, मानविकी विद्या, साहित्य, भौतिक विज्ञान आते हैं। मनुष्य इसका सदुपयोग कर सच्चा मनुष्य बन सकेगा।

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