रघुकुल अयोध्या के राजा सम्राट दिलीप सिंह पर उमनाथ झा की रिपोट
जमशेदपुर। लगभग 8 हजार वर्ष पूर्व त्रेता युग में अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट राजा दिलीप हुए। कई वर्षों तक उनके यहाँ कोई संतान नहीं हुई थी। एक बार वे अपनी पत्नी के साथ गुरु वसिष्ठ के आश्रम गए और पुत्र प्राप्ति के लिए महर्षि से प्रार्थना की। महर्षि ने ध्यान करके राजा दिलीप से कहा, “राजन! आप देवराज इन्द्र से मिलकर जब स्वर्ग से पृथ्वी पर आ रहे थे तो आपने रास्ते में खड़ी कामधेनु को प्रणाम नहीं किया। आपने तो कामधेनु को देखा तक नहीं। कामधेनु ने आपको शाप दे दिया कि आपको उनकी संतान की सेवा किये बिना पुत्र प्राप्त नहीं होगा।
महाराज दिलीप बोले, “गुरुदेव! सभी गायें कामधेनु की संतान हैं। मैं गायों की सेवा जरुर करूँगा।
गुरु वसिष्ठ ने कहा, “राजन! मेरे आश्रम में जो नंदिनी नाम की गाय है, वह कामधेनु की पुत्री है। आप उसी की सेवा करें। राजा दिलीप सबेरे ही नंदिनी को वन में चराने ले जाते। उसकी खूब सेवा करते। महारानी सुदाक्षिणा नंदिनी की सुबह शाम पूजा करती थीं।
एक रोज़ राजा दिलीप वन में कुछ सुन्दर पुष्पों को देखने लगे और इतने में नंदिनी आगे चली गयी। दो चार क्षण में ही उस गाय के रंभाने की ध्वनि सुनाई पड़ी। राजा जब दौड़कर वहां पहुंचे तो देखते हैं कि उस झरने के पास एक विशालकाय शेर नंदिनी को दबोचे बैठा है। शेर से गाय को छुडाने के लिए राजा दिलीप ने धनुष उठाया और तरकश से बाण निकालने लगे तो उनका हाथ तरकश से ही चिपक गया।
आश्चर्य में पड़े राजा दिलीप से शेर ने मनुष्य की आवाज में कहा, “राजन! मैं कोई साधारण शेर नहीं हूँ। मैं भगवान शिव का सेवक हूँ। अब आप लौट जाइए। मैं भूखा हूँ। मैं इसे खाकर अपनी भूख मिटाऊंगा।
राजा दिलीप बड़ी नम्रता से बोले, “आप भगवान शिव के सेवक हैं, इसलिए मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आप इतनी कृपा और कीजिये कि आप इस गौ को छोड़ दीजिये और अगर आपको अपनी भूख ही मिटानी है तो मुझे खा लीजिये।
उस शेर ने महाराज को बहुत समझाया, लेकिन राजा दिलीप नहीं माने और अंततः अपने दोनों हाथ जोड़कर शेर के समीप यह सोच कर नतमस्तक हो गए कि शेर उनको अभी कुछ ही क्षणों में अपना ग्रास बना लेगा।
तभी नंदिनी ने मनुष्य की आवाज में कहा, “महाराज! उठिए। यहां कोई शेर नहीं है। सब मेरी माया थी। मैं तो आपकी परीक्षा ले रही थी। मैं आपकी सेवा से अति प्रसन्न हूँ।
इस घटना के कुछ महीनो बाद रानी गर्भवती हुई और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उनके पुत्र का नाम रघु था। महाराज रघु के नाम पर ही रघुवंश की स्थापना हुई। कई पीढ़ियों के बाद इसी कुल में भगवान श्री राम का अवतार हुआ।