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आदिवासी समाज में स्वशासन के नाम पर चालू है स्वशोषण : सालखान मुर्मू


जमशेदपुर। आदिवासी समाज में पारंपरिक रूप से विद्यमान स्वशासन पद्धति के ग्राम प्रधान या माझी-परगना आदि अब तक वंशपरंपरागत नियुक्त होते हैं। अंततः लगभग सभी अशिक्षित, नशा करनेवाले, संविधान- कानून आदि से अनभिज्ञ होते हैं। देश दुनिया की बातों से भी बेखबर होते हैं। इनको नशापान, अंधविश्वास ( डायन प्रथा), ईर्ष्या द्वेष, हँड़िया – दारु – रुपयों में वोट की खरीद बिक्री और वंशपरंपरागत पद्धति को गुणात्मक जनतांत्रिकरण द्वारा ठीक करने में कोई दिलचस्पी नहीं होती है। वंशपरंपरागत व्यवस्था के कारण गांव- गांव में शिक्षित आदिवासी स्त्री – पुरुषों की उपस्थिति के बावजूद कोई सुधार नहीं हो रहा है और स्वशासन के नाम पर डांडोम (जुर्माना), बारोंन ( सामाजिक वहिष्कार ), डन पांते (डायन की खोज ) आदि संविधान- कानून विरोधी क्रियाकलाप जारी है। जंगल रुल के तहत उठाए डंडोम या जुर्माना के हज़ारों- लाखों रुपयों को माझी-परगाना के नेतृत्व में ग्रामीण हँड़िया- दारू, मांस- भात खाकर मौज करते हैं। इस प्रकार निर्दोष गरीब, कमजोर आदिवासी गांव- गांव में अन्याय, अत्याचार, शोषण के शिकार हो रहे हैं। आदिवासी समाज में डायन नहीं हैं,किन्तु डायन बनाने वालों में अधिकांश आदिवासी स्वशासन के प्रमुखों का हाथ होता है। अंजाम निर्दोष आदिवासी महिलाओं के साथ घोर शोषण और जुल्म जारी है।

आदिवासी सेंगेल अभियान (सेंगेल) 5 प्रदेशों में लगातार इसके सुधार के लिए संघर्षरत है और विकल्प के रास्ते को 4 अप्रैल 2021 से आदिवासी समाज में शुरू कर दिया है। इसके तहत आदिवासी स्वशासन पद्धति में गुणात्मक जनतांत्रिकरण पद्धति से सुधार शुरू है।ताकि सभी ग्रामीणों की सहमति से शिक्षित, समझदार स्त्री- पुरुष माझी-परगना का स्थान ले सकें। साथ ही नशापान, अंधविश्वास, ईर्ष्या द्वेष और राजनीतिक कुपोषण को दूर करने का जनजागरण और सुधार का काम भी जारी है। जनता में इसको लेकर अच्छा रुझान है जबकि कुछ माझी- परगना के नाम पर क्रियाशील संगठनों के अगुवा चिंतित हैं।

जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी (जसवा) द्वारा “लोकतांत्रिक ढंग से हो ग्राम प्रधान का चुनाव” का विचार स्वागत योग्य है।

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